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पद्मपुराण
भगवान भक्त महाविभूतिवंत अति महिमाकर प्रभुका पूजन करे हैं तिनके पुण्यके समू का व्याख्यान कौन कर सके ? वे उत्तम पुरुष देवगतिके सुख भोग बहु-रे चक्रवर्तियोंके भोग पावें बहुरि राज्य तज जैनमतके व्रत धार महातप कर परम मुक्ति पावें । कैसा है तप, सूर्यहू अधिक है तेज जाका |
इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ ताकी भाषा वचनिकाबि श्री शांतिनाथके चैत्यालय में अवान्हिका का उत्सव वर्णन करनेवाला अडसठवां पर्ग पूर्ण भया ।। ६८ ।।
अथानन्तर महाशांतिका कारण श्रीकांतिनाथका मंदिर कैलाशके शिखर पर शरद के मेघ समान उज्जल महा दीप्यमान मंदिरोंकी पंक्तिकर मंडित जैसे जम्बूद्वीपके मध्य महा उतंग सुमेरु पर्वत सो है तै। रावण के मंदिरके मध्य जिनमंदिर सोहता भया । तहां रावण जाय विद्या के साथनमें श्रमक्त हैं चित्त जाका अर स्थिर है निश्चय जाका परम अद्भुत पूजा करता भया भगवानका अभिषेक कर अनेक बादित्र बजावता श्रति मनोहर द्रव्यनिकर महा सुगन्ध धूप कर नानाप्रकार की सामग्री कर शांतचित्त नया शांतिनाथ की पूजा करना भया मानों दूजा इन्द्र ही है। शुक्ल वस्त्र पहिरे महा सुन्दर जे भुजबन्ध तिन कर शोभित हैं सुना जाकी सिरके केश भली भांति बांध तिनपर मुकुट थर तापर चूडामणि लहलहाट करती महाज्योतिको धरे रावण दोनों हाथ जोड गोडोंसे धरती से स्पर्शता मन वचन कायकर शांतिनाथ को प्रणाम करता भया । श्री शांतिनाथके सन्मुख निर्मल भूमिमें खडा अत्यंत शोभता भया । कैसी है भूमि ? पद्मराग मणि की है फर्श जार रावण स्फटिक मणिकी माला हाथमें अर उरमें परे कैथा सोहता भया मानों बक पंक्तिकर संयुक्त कारो घाा समूह ही है । वह राक्षनिका अविरति महावीर विद्याका साधन आरम्भता भया । जब शांतिनाथके मंदिर गया ता पहिले मन्दोदरीको यह आज्ञा करी जो तुम मंत्रिनको र कोटवालको बुलाकर यह घोषणा नगर में फेरियो जो सर्वलोक दयामें तत्पर नियम धर्मके धारक होश्रो, समस्त व्यापार तज जिनेन्द्रकी पूजा करो श्रर अर्थी लोगों को मनवांछित धन देवो, अहंकार तजो ।
जौ लग मेरा नियम न पूरा होय तौलग समस्त लोग श्रद्धाविषै तत्पर संयमरूप रहो जो कदाचित् कोई बाधा करे तो निश्चयसेती सहियो, महाबलवान होग सो बलका गर्व न करियो इन दिवसनिवि जो कोऊ क्रोधकर विकार करेगा सो अवश्य सजा पावेगा । जो मेरे पिता समान पूज्य होय अर इन दिननिवि कषाय करे, कलह करे ताहि मैं मारू, जो पुरुष समा धिमरणकर युक्त न होय सो संसार समुद्रको न तिरे जैसे अंधपुरुष पदार्थनिको न परखे तैसे विवेक धर्म न निरखें तालेँ सब विवेकरूप रहियो, कोऊ पापक्रिया न करने पावे, यह आज्ञा मंदोदरीको कर रावण विनमंदिर गए अर मंदोदरी मंत्रीयोंको र यमदंडनामा कोटपालको द्वारे बुलाय पतिकी श्राज्ञा प्रमाण आज्ञा करती भई । तब सबने कही जो श्राज्ञा होयगी सोही करेंगे । यह कह आज्ञा सिरपर घर घर गए अर संयमपहित नियम धर्मके उद्यमी होय की आज्ञा प्रमाण करते भए । समस्त प्रजा के लोग जिन पूजाविषै अनुरागी होते भए अर समस्त
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