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________________ अडसठवां प. ४१७ शिखरविणे लगे जे रत्न तिनकी ज्योतिको अपने चरणनिके नखोंकी ज्योतिकर वढावन हारे हैं, थन पावनेका यही फल जो धर्म करिए मो गृहस्थका धर्म दान पूज रूप अर यतिका धर्म शांत भावरूप । या जगतविणै यह जिनधर्म मनवांछित फल का देन हारा है जैसे सूर्यके प्रकाश कर नेत्रनिके धारक पदार्थनिका अवलोकन करे है तैसे जिनधर्मके प्रकाश कर भव्य जीव निज भावका अवलोकन करे हैं। इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ ताकी भाषावचनिकाविौं श्रीशांतिनाथके चैत्यालयका वर्णन करनेवाला सरसठनां पर्ण पूर्ण भया ।। ६७ ।। अथानन्तर फाल्गुणसुदी अष्टमी लेय पूर्णमासी पर्यंत सिद्धचक्र का व्रत है जाहि अष्टाबिका कहे हैं सो इन आठ दिननिमें लंकाके लोग अर लशकरके लोग नियम ग्रहणको उद्यमी भए । सर्व सेनाके उत्तम लोक मनमें यह धारणा करते भए जो यह आठ दिन धर्मके हैं सो इन दिननिमें न युद्ध करें न और प्रारम्भ करें यथाशक्ति कल्याणके अर्थ भगवानकी पूजा करेंगे अर उपवासादि नियम करेंगे। इन दिननिमें देव भी पूजा प्रभावनामें तत्पर होय हैं। क्षीरसा. गरके जे सुवर्णके कलश जजकर भरे तिनकर देव भगवान का अभिषेक करे हैं कैसा है जल ? सत्पुरुपनिके यशसमान उज्जवल अर और भी जे मनुष्यादि हैं तिनको भी अपनी शक्तिप्रमाण पूना अभिषेक करना । इंद्रादिक देव नंदीश्वरद्वीप जायकर जिनेश्वर का अर्चन करे हैं तो कहा ये मनुष्य अपनी शक्ति प्रमाण यहांके चैत्यालयों का पूजन न करें ? करें ही करें । देव स्वर्ण रत्ननिके कलशनिसे अभिषेक करें हैं अर मनुष्य अपनी संपदा प्रमाण करें महानिर्धन मनुष्य होय तो पलाश पात्रनिके पुटहीसे अभिषेक करै । देव रत्न स्वर्णके कमलनिसे पूजा करें हैं निर्धन मनुप्य चित्तही रूप कमलनिसे पूजा करें हैं । लंकाके लोक यह विचारकर भगवानके चैत्यालयनिको उत्साहसहित ध्वजा पताकादिकर शोभित करते भए, वस्त्र वण रन्नादिकर अति शोभा करी रत्नोंकी रज अर कनकरज तिनके मंडल मांडे अर देवालयनिके द्वार अति सिंगारे अर मणि सुव के कलश कमलनिसे ढके दधि दुग्ध घृतादिसे पूर्ण मोतियोंकी माला है कंठमें जिनके, रत्न निकी कांतिकर शोभित, जिन बिम्बोंके अभिषेकके अर्थ भक्तिवंत लोक लाये, जहां भोगी पुरुपोंके घर में सैकडो हजारों मणिों के कलश हैं, नंदनवनके पुष्प अर लंकाके वनोंके नानाप्रकारके पुष्प कणि कार अतिमुक्त कदंब सहकार चंपक पारिजात मंदार जिनकी सुगन्धता कर भ्रमरनिके समूह गुजार करें हैं अर मणि सुवर्णादिकके कमल तिनकर पूजा करते भए अर दोन मृदग ताल शख इत्यादि अनेक वादित्रनिके नाद होते भए, लंकापुरके निवासी वैर तज मानन्दरूप होय आठ दिनमें भगवानकी अति महिमाकर पूजा करते भए, जैसे नंदीश्वर द्वीप में देव पजाके उद्यमी होंय तैसे लंकाके लोक लकाविष पूजाके उद्यमी भए अर रावण विस्तीर्ण प्रतापका धारक श्रीशांतिनाथ के मंदिरविष जाय पवित्र होय भक्तिकर महामनोहर पजा करता भया जैसे पहिले प्रतिवासुदेव करे, गोतम गणथर कहे हैं-हे श्रेणिक ! जे महाविभवकर युक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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