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पद्म पुराण
वचन सुन
अथानन्तर लंकेश्वर अपने दूत एक मंत्र के ज्ञाता मंत्रियों मंत्रकर कपोल पर हाथ पर अधोमुख होय कछु एक चिंता रूप तिष्ठा अपने मनमें विचारे है जो शत्रु को युद्ध में जीतू हूं तो भ्राता पुत्रनिकी अकुशल दीखे है अर जो कदाचित वैरिनके कटकमें मैं रति हावकर कुमारनिको ले आऊं तो या शू तायें न्यूनता है । रतिहाव क्षत्रियोंके योग्य नाही कहा करू' कैसे मोहि सुख होय ? यह विचार करते रावणको यह बुद्धि उपजी जो मैं बहुरूपिणी विद्या साधू | कैसी है बहुरूपणी ? जो कदाचित देव युद्ध करें तो भी न नीती जाय, ऐसा विचार कर सब सेवकनिको आज्ञा करी - श्रीमति मंदिर में समीचीन तोरणादिकनिकर अति शोभा करो सो सव चैत्यालयों में विशेष पूजा करो। सर्व भार पूजा प्रभावनाका मन्दोदरीके सिरपर धरा । गौतम गणधर कहे हैं - हे कि ! श्रीनाथ बीसवां तीर्थंकरका समय ता समय या भरत क्षेत्र में सर्व ठौर जिनमंदिर हुते यह पृथिवी जिन मंदिरनि कर मण्डित हुती चतुर विसंघकी विशेष प्रवृत्ति राजा श्रेष्ठे पति अर प्रजाके लोग सकल जैनी हुने सो महा रमणीक जिनमंदिर रचते जिनमंदिर जिनशासनके भक्त जो देव तिनसे शोभायमान वे देवधर्म की रक्षा में प्रवीण शुभ कार्य करणडारे, ता समय पृथिवी भव्य जीवनिकर भरी ऐसी सोढती मानों स्वर्ग विमान ही है ठौर ठौर पूजा ठौर ठौर भावना ठर डौर दान । हे मगधाधिपति ! पर्वत पर्वत में गांव गांव में नगर नगर में वन वन पट्टन पट्ट विषे मंदिर मंदिरविषै जिनमंदिर ते महा शोभाकर संयुक्त शरद के पूर्णका चन्द्रमा समान उज्ज्वल गीतों की ध्वनि कर मनोर नाना प्रकारके वादिनि के शब्द कर मानों समुद्र गाजे है अर तीनों संध्या वंदनाको लोक आवें सो साधुओं के संगसे पूर्ण नाना प्रकार के आश्चर्य कर संयुक्त नाना प्रकारके चित्रामको घरें अगर चन्दनका धूप अर पुष्पनिकी सुबन्धना कर महा सुगन्ध नई महा विभूति कर नाना प्रकार के वर्णकर शोभित महा विस्तीर्ण महा उतंग महा ध्वजनिकर विराजित तिनमें रत्नमई तथा स्वर्णकी प्रतिमा विराजें विद्याधरनिके स्थानविषै अति सुन्दर जिन मं देरनिके शिखर तिनकर अति शोभा होय रही हैं। ता समय नाना प्रकारके रत्नमई उपवनादिसे शोभित जे जिनमवन तिनकर यह जगत व्याप्त अर इन्द्रनगर समान लंकाका अंतर बाहिर जिनेंद्रके मंदिरर्शन कर मनोग्य था सो रावण ने विशेष शोभा कराई पर आप रावण अठारह हजार राणी वेई भई कमलनि वन तिनको प्रफुल्लित करता वर्षाके मेघ समान है स्वरूप जाका सो महा नागसमान है भुजा जाकी पूर्णमासीके चंद्रमा समान वदन सुन्दर केतकी के फूल समान लाल होठ विस्तीर्ण मंत्र स्त्रीनिका मन हरणहारा लक्ष्मण समान श्याम सुन्दर दिव्यरूपका धरणहारा सो अपने मंदिरनिविषै तथा सर्व क्षेत्र में जिनमंदिरनिकी शोभा करावता भया । कैसा है रावणका घर ? लग रहे हैं लोगनिके नेत्र जां पर जिन मंदिरनिकी पंक्ति कर मंडित नाना प्रकार के रत्नमई मंदिरके मध्य उतंग श्रीशांतिनाथका चैत्यालय जहां भगवान शांतिनाथ जिनकी प्रतिमा विराजै । जे भव्य जीव हैं ते सहल लोकचत्रिको असार अशाश्वता जानकर धर्ममें बुद्धि धर जिनमंदिरनिकी महिमा करो । कैसे हैं जिन मंदिर १ जगत कर वंदनीक हैं अर इन्द्रके मुकुटके
मई
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