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AAJALAMAU
छियासठवां पर्व
“४१५ कही-जो कहा तेरा स्वामी आग्रहरूप ग्रहके वश भया है ? कोऊ वायुका विकार उपजा है जो ऐसी विपरीत वार्ता रंक हवा बकै है अर कहा लंका में कोऊ वैद्य नाही, अक मन्त्रवादी नहीं वायके तैलादिक्रकर यत्न क्यों न करे नातर संग्रामविष लक्ष्मण सर्वरोग निवारेगा । भावार्थ--मारेगा।
तब यह वचन सुन मैं क्रोधरूप अग्निकर प्रज्वलित भया अर मुग्रीव मूकही-रे वानरध्वज, तू ऐसे बकै जैसे गनके लार स्वान बकै, तू रामके गर्वकर मूबा चाहे है जो चक्रवसिंकू निंदाके वचन कहे है सो मेरे अर सुग्रीपके बहुन वात भई अर विराधितसे कहा-अधिक कहा कहूँ ? तिहारे ऐसी शक्ति है तो मेरे अकेलेके ही साथ युद्ध करले अर राममों कहा-हे राम, तुम महारणविर्ष रावणका पराक्रम न देखा, कोऊ तिहारे पुण्यके योग कर वह वीर विकराल क्षमामें आया है। वह कैलाशका उठाव नहारा तीन जगतमें प्रसिद्ध प्रतापी तुमसे हित किया चाहै है अर राज्य देय है ता समान और कहा है, तुम पनी भुजनि कर दशसुख रूप समुद्रक कैसे तिरोगे। कैसा है दशमुख रूप समुद्र ? प्रचंड सेना सोई भई तरंगनिकी माला तिनकर पूर्ण है अर शस्त्र रूप जल वरनिके समूह कर भरा है। हे राम! तुम कैसे रावणरूप भयंकर वनविष प्रवेश करोगे, कैसा है रावणरूप बन ? दुर्गम कहिए जा विौ प्रवेश करना कठिन है अर पाल कहिए दुष्ट गज तेई नाग तिन कर पूर्ण है अर सेना रूप वृक्ष ने के समूः कर महा विपन है. हे राम ! जैसे कमल पत्रकी पवन कर सुमेरु न डिगे अर सूय की किरणकर समुद्र न सूके, बलद के सींगोंसे थरती न उठई जाय तैसे तुम सारिखे नरनिकर नग्थति दशानन जीता न जाय । ऐसे प्रचंड वचन मैं कहे तब भामण्डलने महा क्रोधरूप होय मोहि मारवेको खड्ग काढा तब लदमणने मने किया जो दूतको मारना न्यायमें नहीं कहा । स्थाल पर सिंह को न करे जो सिंह गजेन्द्रके कुम्भस्थल अपने नखनिसे विदारे । तात-हे भामण्डल ! प्रपन्न हो क्रोध तजो जे शूरवीर नृाति हैं महा सेजस्ती ते दीननिपर प्रहार न करें । जो भयकर कम्पायमान होय ताहि न हने श्रमण कहिए मुनि अर ब्राह्म । कहिए व्रतधारी गृहस्थी अर शून्य कहिए सूना अर स्त्री बालक वृद्ध पशु पक्षी दूत ये अवध्य हैं इनको शूरगर सर्वथा न हन इत्यादि बचन निके समूहकर लक्ष्मण महा पंडित ताने समझाय भामण्डलको प्रसन्न किया अर करिध्वजनिक कुमार महा कर तिन वज्र समान वचन निकर मोहि वींधा तब मैं उनके प्रसार पवन सुन आकाशमें गमनकर प्रायु कर्मके योगसे आपके निकट पाया हूँ । हे देव ! जो लक्ष्मण न होय तो आज मेरा मरण ही होता जो शत्रुनिके घर मेरे विवाद भपा सो मैं सब आप कहा मैं कछ शंका न राखी अब आपके मनमें जो होय सो करो, हम सारिखे किंकर तो वचन करे हैं जो कलो सो करें। या भांति दूत दशमुखसे कहता भया । यह कथा गौतम गणधर श्रेणिकसे कहै हैं-हे श्रेणिक ! जो अनेक शास्त्रनिके समूह जाने पर अनेक नयविष प्रवीण होय अर जाके मंत्री भी निपुण होय और सूर्य सारिखा तेजस्वी होय तथापि मोह रूा मेघपटल कर आच्छादित भया प्रकाश रहित होय है। यह मोह महा अज्ञानका मूत विभियाको तजना योग्य है ।।
इति श्रीरविजेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा नचनिकानि रानणके दत ___ का भागमा बहुरि पाला रावण पास गमन गर्णन करनेगाला छियाराठयां पर्व पूर्ण भया ॥६६॥
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