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पन-पराण लक्ष्मण ! नीति ही हैं नेत्र जिनके, भामण्डलके क्रोधकर रक्त नेत्र होय गर वक्र होय गए जैसी सांझ की लाली होय तैता लालवदन होय गया । तब मंत्रिनिने योग्य उपदेश कह समताको प्राप्त किया । जैसे विषका भरा सर्प मंत्रसे वश कीजिये है । हे नरेन्द्र, क्रोध तजो यह दीन तिहारे योग्य नाही, यह तो पराया झिकर है जो वह कहावै सो क है याके मारवेकर कहा ? स्त्री, चालक, दूत, पशु, पक्षी, वृद्ध, रोगी, सोता, आयुधरहित, शरणागत, तपस्वी, गाय, ये सनथा अवध्य हैं । जैसे सिंह कारी घटा समान गाजते जे गज तिनका मर्दन करनेहारा सो मीडकनि पर कोप न कर तैसे तुमसे नृपति दूतपर कोप न करें, यह तो वाके शब्दानुसार है जैसे छाया पुरुष है (छाया पुरुषकी अनुगामिनी है) पर सूवाको ज्यों पढ़ावें तैसे पढ़ अर यन्त्रकोज्यो वजावे त्यों वजै तैसे यह दीन वह बकावै त्यों बकै। ऐसे शब्द लक्ष्मणने कहे तब सीताका भाई भामण्डल शांतचित्त भया। श्रीराम दूतको प्रकट कहते भए-३ मूढ दूत :तू शीघ्र ही जा पर रावणको ऐसे कहियो तू ऐसे मूढ मंन्त्रियों का बहकाया खोटे उपाय कर पापा उगावेगा तू अपनी बुद्धिकर विचार, किसी कुवृद्धिको पूले मन, सीताका प्रसंग तज, सर्व पृथिवीका इन्द्र हो पुष्पक विमानमें बैठा जैसे भ्रमे था तैसे विभवसहित भ्रम, यह मिथ्या हठ छोड दे, बुद्रनिकी बात मत सुनहु, करने योग्य कार्य में चित्त थर जो सुखकी प्राप्ति होय । ये वचन कह श्रीराम तो चुप होय रहे अर और पुरुषनिने दत को बहुरि बात न करने दई, निकाल दीया। दूा रामके अनुचरनिने तीस्व वाणरूप वचननि कर बींधा अर अति निरादर किया तब रावणके निकट गया, मनविष पीडा थका, सो जायकर रावणको कहता भया हे नाथ ! मैं तिहारे आदेश प्रमाण रामसों कही जो या पृथिवी नाना देशनि कर पूर्ण समुद्रांत महा रत्ननि की भरी विद्याधशेके समस्त पट्टन सहित मैं तुमको दंह भर बडे २ हाथी रथ तुरंग दूंहूँ अर यह पुष्पक विमान लेवो जो देवोंसे न निवारा जाय याविषे बैठ विचरो अर तीन हजार कन्या मैं अपने परवार की तुमको परणाय दूं अर सिंहासन सूर्य समान पर चन्द्रमा समान छत्र वे लेहु अर निःकंटक राज करो ऐती बात मुझे प्रमाण हैं जो तिहारी माज्ञा कर सीता मोहि इच्छे यह धन अर थरा लेवो अर मैं अल्प विभूति राख बैंतहीके सिंहासन पर बैठा रहंगा। विचक्षण हो तो एक वचन मेरा मानहु, सीता मोहि. देवो। ए वचन मैं बार बार कहे सो रघुनन्दन सीताका हठ न छोडें, केवल वाके सीताका अनुराग है और वस्तुकी इच्छा नाही । हे देव ! जैसे मुनि महाशांतचित्त अठाईस मूल गुणोंकी क्रिया न तजें वह क्रिया मुनिव्रत का मूल हैं तैसे राम सीताको न तजें, सीता ही रामके सर्वस्व है। कैनी है सीता ? त्रैलोक्यमें ऐसी सुन्दरी नाहीं अर रामने तुमसू यह कही है कि -दशानन ! ऐसे सर्वलोकनिंद्य वचन तुमसे पुरुषनिको कहना योग्य नाहीं ऐसे वचन पापी कहे हैं। उनकी जीवके सौ टुक क्यों न होंय ? मेरे या सीता बिना इन्द्रके भोगनिकर कार्य नाहीं । यह सर्व पृथिवी तू भोग, मैं वनवास ही करूंगा अर तू परदारा हर कर मरवेको उद्यमी भया है तो मैं अपनी स्त्रीके अर्थ क्यों न मरूंगा? अर मुझे तीन हजार कन्या देहै सो मेरे अर्थ नाहीं, मैं वनके फल अर पत्रादिक ही भोजन करू गा अर सीतासहित वन में विहार करूंगा अर कपिध्वजोंका स्वामी सुग्रीव ताने हंसकर मोहि
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