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उनतालीसमा पर्व
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वसुभूतिका षडग देख पिताके भरणका निश्चयकर उदिनने बमुसूति को मार सो पापी मरकर म्लेच्छकी योनि को प्राप्त भया। ब्राह्मण हुना सो कुशीलके पर हिंसाके दोषते चांडालका जन्म पाया। एक समय मतिवर्धननामा प्राचार्य मुनिनिविष महातेजस्वी पद्मनी नगरी आए सो घसंततिलकनामा उद्यान में संघमहित विराजे पर आधिकानिकी गुगनी अनुधरा धर्म ध्यान विष तत्पर सोहू मार्यिकानिके संघसहित आई सो नगरके समीप पवनविष तिष्ठी अर जा वनमें मुनि बिराजे हुते ता वनके अधिकारी प्राय राजा हाथ जोड बिनती करते भए-हे देव ! आगेको या पीछे को कहो संघ कौन सरफ जावे तब राजा कही जो कहा बात है ? ते कहते भए उद्यानविर्ष मुनि आए हैं जो मने करें तो डरें जो नाहीं मने करें तो तुम कोप करो यह हमको बडा संकट है स्वर्गके उद्यान समान यह वन है अब तक काहूको याविर्ष आने न दिया परंतु मुनिनिका कहा करें ते दिगम्बर देवनिकर न निवारे जावें हम सारखे कैसे निवारें, तब राजा कही तुम मत मने करो जहां साधु विराने सो स्थानक पवित्र होय है सो राजा बडी बिभूति मनिनिके दर्शनको गया ते महाभाग्य उद्यानमें विराजे हुते वनकी रजकरि धूसरे हैं अंग जिनके, मुक्ति योग्य जो क्रिया ताकरि युक्त, प्रशांत हैं हृदय जिनके, कैयक कायोत्सर्ग थरे दोनों भुजा लुगांय खडे हैं कैयक पद्मासन धर बिराजे हैं बेला तेला चोला पंच उपवास दस उपवास पतमासादि अनेक उपवासनि करि शोषा है अंग जिनने, पठन पाठनविर्ष सावधान भ्रमर समान मधुर हैं शब्द जिनके शुद्ध स्वरूप में लगाया है चित्त जिनने सो राजा ऐसे मुनिनिको दासे देख गर्वरहित होय गजते उतर सावधान होय सर्व मुनिनिको नमस्कार कर प्राचार्यके निकट जाय तीन प्रदक्षिणा देय प्रणामकर पूछता भया-हे नाथ जैसी तिहारे शरीर में दीप्ति है तैसे भोग नाहीं । तब आचार्य कहते भए-यह कहा बुद्धि तेरी ? तू शूरवीर याको स्थिर जाने है, यह बुद्धि संसारकी बढावनहारी है। जैसे हाथी के कान चपल तैसा जीतव्य चपल है यह देह कदलीके थंभसमान असार है अर ऐश्वर्य स्वप्न तुल्य है घर कुटम्ब पुत्र कलत्र बांधव सब असार हैं ऐसा जानकर या संसारकी माया विष कहा प्रीति ? यह संसार दुःखदायक है। यह प्राणी अनेक बार गर्भवासके संकट भोगवे हैं। गर्भवास नरक तुल्य महा भयानक दर्गन्ध कृमिजाल कर पूर्ण रक्त श्लेषमादिक का सरोवर महा अशुचि कर्दमका भरा है यह प्राणी मोहरूप अंधकार करि अन्ध भया गर्भवाससूनाहीं डरे है । धिक्कार है या अत्यन्त अपवित्र देह को, सर्व अशुभका स्थानक क्षणभंगुर, जाका कोई रक्षक नाही । जीव देहको पोष वह याहि दुःख देय सो पहाकृतघ्न नसा जालकर बेढा चर्मकरि ढका अनेक रोगनिका पंज जाके भागमनकरि ग्लानिरूप ऐसे देह में जे प्राणी स्नेह करै हैं, ते ज्ञानरहित अविवेकी हैं । तिनके कल्याण कहांते होय है अर या शरीरविष इंद्रिय चौर बसे हैं । ते बलात्कार थर्मरूप धनको हरे हैं। यह जीवरूप राजा कुबुद्धिरूप स्त्री रमे हैं । अर मृत्यु याको अचानक असा चाहै है । मनरूप माता हाथी विषयरूप वनमें क्रीडा करे है । ज्ञानरूप अंकुशते याहि बशकर वैराग्यरूप थंभसू
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