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________________ पभ-पुराण भासते भए, श्रीराम चित्तविष चिंतवते हैं यह साक्षात् चंद्रकिरण भव्य जन कुमुदनीको प्रफुल्लित करणहारी सौहै है बडा आश्चर्य है यह कायर स्वभाव मेधके शब्दसे डरती सो अब महा तपस्विनी भयंकर वनमें कैसे भयको न प्राप्त होयगी ? नितंब होके भारसे आलस्यरूप गमन करणहारी महाकोमलशरीर तपसे विलाय जायगी । कहां यह कोमल शरीर पर कहां यह दुर्धर जिनराजका तप ? सो अति कठिन है जो दाह बडे २ वृक्षोंको दाहे उसकर कमलनीकी कहा वात ? यह सदा मनवांछित मनोहर आहार की करणहारी अब कैसे यथालाभ भिक्षा कर कालक्षप करेगी? यह पुण्याधिकारणी रात्रिमें स्वर्गके विमान समान सुन्दर महल में मनोहर सेजपर पोढती अर बीण बांसुरी मृदंगादि शब्दकर निद्रा लेती सो अब भयंकर वन में कैसे रात्रि पूर्ण करेगी वन तो. डाभकी तीक्ष्ण अणि योंकर विषम अर सिंह व्याघ्रादिके शब्दकर डरावना, देखो मेरी भूल जो मूढः लोकोंके अपवादसे मैं महासती पतिव्रता शीलवती सुन्दरी मधुरभाषिणी घरसे निकासी । इस भांति चिंताके भारकर पीडित श्रीराम पवनकर कंपायमान कमल समान कंपायमान होते भए फिर केवलीके वचन चितार धीयं धर अंसू पोंछ शोकरहित होय महा विनयकर सीताको नमस्कार किया, लक्ष्मण भी सौम्य है चित्त जिसका हाथ जोड नमस्कारकर राम सहित स्तुति करता भया-हे भगवती धन्यतू सती बंदनीक है सुन्दर है चेष्टा जिसकी जैसे धरा सुमेरु को धारे तैसे तू जिनराजका धर्म धारे है तैंने जिनवचनरूप अमृत पीया उसकर भव रोग निवारंगी सम्यवत्व ज्ञानजहाजकर संसाररूप समुद्रको तिरंगी । जे पतिव्रता निर्मल चित्तकी धरणहारी है तिनकी यही गति है अपना आत्मा सधारे पर दोनों लोक अर दोनों कुल सुधारें पवित्र चित्तकर ऐसी क्रिया प्रादरी । हे उत्तम नियमकी थरणहारी हम जो कोई अपराध किया होय सो क्षमा करियो संसारी जीवों के भाव अविवेकरूप होय है सो तू जिनमार्गमें प्रवरती संसारकी माया अनित्य जानी अर परम आनंद रूप यह दशा जीवोको दुर्लभ है इस भांति दोनों भाई जानकीकी स्तुतिकर लवण अंकुश को आगे धरे अनेक विद्याथर महीपाल तिन सहित अयोध्यामें प्रवेश करते भए जेसे देवों सहित इन्द्र अमरावती में प्रवेश करे पर समस्त राणी नाना प्रकारके बाहनोंपर चढी परिवारसहित नगरमें प्रवेश करती भई सो रामको नगरमें प्रवेश करता देख मंदिर ऊपर बैठी स्त्री परस्पर वार्ता करै हैं यह श्रीरामचन्द्र महा शूरवीर शुद्ध है अन्तकरण जिनका महा विवेकी मूढ लोंकोके अपवादसे ऐसी पतिव्रता नारी खोई तब केयक कहती भई जे निर्मल कुलके जन्मे शूरवीर क्षत्री हैं तिनकी यही रीति हैं किसी प्रकार कुलको कलंक न लगावें लोकोंके संदेह दूर करिवे निमित्त रामने उसको दिव्य दई वह निर्मल आत्मा दिव्यमें सांची होय लोकोंके संदेह मेट जिन दीक्षा धारती भई पर कोई कहै-हे सखी! जानकी विना राम कैसे दीखे है जैसे विना चांदनी चांद अर दीप्ति विनासूर्य तब कोई कहती भई यह आप ही महाकांतिधारी हैं इनकी कांति पराधीन नहीं पर कोई कहती भई सीताका वज्रचित्त है जो ऐसे पुरुषोत्तम पतिको छोड जिन दीक्षा धारी तब कोई कहती भई धन्य है सीता जो अनर्थरूप गृहवासको तज आत्मकल्याण किया पर कोई कहती भई ऐसे सुकुमार दोनों कुमार महा धीर लवण अंकुश कैसे तजे गए स्त्रीका प्रम पतिसे छूटे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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