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________________ एक सौ आठवा पां ५६९ परन्तु अपने जाए पुत्रोंसे न छूटे तब कोई कहती भई ये दोनों पुत्र परम प्रतापी हैं इनका माता क्या करेगी इनका सहाई पुण्य ही है अर सब ही जीव अपने कर्म के आधीन हैं इस भांति नगरकी नारी वचनालाप करे है जान कीकी कथा कोनको आनन्दकारिणी न होय अर यह सब ही रामके दर्शन की अभिलापिनी रामको देखती देखती तृप्त न भई जैसे भ्रमर कमलके मकरन्दसे तृप्त न होय अर कैयक लक्ष्मणकी ओर देख कहती भई ये नरोत्तम नारायण लक्ष्मीवान अपने प्रतापकर वश करी है पृथिवी जिन्होंने चक्रके धारक उत्तम राज्य लक्ष्मीके स्वामी वैरियोंकी स्त्रीयोंको विधवा करणहारे रामके आज्ञाकारी हैं इस भांति दोनों भाई लोककर प्रशंसा योग्य अपने मन्दिर में प्रवेश करते भए जैसे देवेंद्र देवलोक में प्रवेश करें। यह श्रीराम चरित्र जो निरंतर धारण करे सो अविनाशी लक्ष्मीको पावै ॥ इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण सस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकावि कृतांत बक्र वैराग्य वर्णन करनेवाला एकसौ सातवां पर्व पूर्ण भया ॥ १०७ ॥ ६ अथानन्तर राजा श्रेणिक गौतम स्वामीके मुख श्रीरामका चरित्र सुन मनमें विचारता भयाकि सीताने लवण अंकुश पुत्रोंसे मोह तजा सो वह सुकुमार मृगनेत्र निरन्तर सुखके भोक्ता कैसे माता का वियोग सह सके ? ऐसे पराक्रमके धारक उदार चित्त तिनको भी इष्ट वियोग अनिष्ट संयोग हो है तो औरों की कहा बात ? यह विचार कर गणधर देवसे पूछा, हे प्रभो ! मैं तिहारे प्रसाद कर राम लक्ष्मण का चरित्र सुना अब बाकी लवण अंकुशका चारित्रसुना चाहू हूं तव इन्द्रभूति कहिए गौतम स्वामी कहते भए - हे राजन् ! काकंदी नामा नगरी उसमें राजा रतिबर्द्धन राणी सुदर्शना ताके पुत्र दोष एक प्रियंकर दूजा हितंकर पर मन्त्रों सर्वगुप्त राज्य लक्ष्मीका धुरंधर सो स्वामिद्रोही राजाके मारवेका आग चिंतचे अर सर्वगुप्त की स्त्री विजयावती सो पापिनी राजासे भोग किया चाहे अर राजा शीलवान परदारा पराङ्मुख याकी मायामें न आया, तब याने राजासे कही मन्त्री तुमको मारा चाहे है सो राजाने याकी बात न मानी तब यह पतिको भरमावती भई जो राजा तोहि मार मोहि लिया चाहे है तब मन्त्री दुष्टने सब सामन्त राजा से फोरे, अर राजा का जो सोवनेका महल तहां रात्रिकों श्रग्नि लगाई सो राजा सदा सावधान हुता अर महल में गोप्य सुरंग खाई थी सो सुरंग के मार्ग दोनों पुत्र पर स्त्रीको लेय राजा निकसा सो काशी का धनी राजा कश्यप महा न्यायवान उग्रवंशी राजा रतिवर्धनका सेवक था उनके नगरको राजा गोप्य चला भर सर्वगुप्त रतिवर्धन के सिंहासनपर बैठा सबको आज्ञाकारी किए अर राजा कंश्यप को भी पत्र लिख दूत पठाया कि तुम भी आय मोहि प्रणामकरो सेवाकरों, तब कश्यपने कही हे दूत ! सर्वगुप्त स्वामीद्रोही है सो दुर्गतिके दुख भोगेगा, स्वामीद्रोहीका नाम न लीजे मुख न देखिये सो सेवा कैसे कीजे ? उसने राजाको दोनो पुत्र अर स्त्री सहित जलाया सो स्वामीघात स्त्रीपात भर बालघात यह महादोष उसने उपार्जे तातैं ऐसे पापीका सेवन कैसे करिये, जाका मुख न देखना सो सर्व लोकोंके देखते उसका सिर काट धनी का वैर लूंगा, तब यह वचन कह दूत फेर दिया दूतने जाय सवगुप्तको सर्व वृत्तांत कहा, सो अनेक राजयोंकर युक्त महासेनासहित कश्यप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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