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________________ *** पद्म-पुराण -हे सबका सम्मान किया अर यथायोग्य वार्ता करी बहुरि राजातैं श्राज्ञा लेकर सासू का मुजरा करा बहुरि प्रिया के महल पारे । कैम हैं कुमार ? कांताके देखनेकी है अभिलाषा जिनकी, तहां भी स्त्रीको न देखा तब अति विरहातुर होय काहूको पूछा— हे बालिके; हमारी प्रिया कहां है ? तब वह बोली- हे देव : यहां तिहारी प्रिया नाहीं तब वाके वचनरूप वखकर हृदय चूर्ण हो गया पर कान मानों ताते खारे पानी से सींचे गये जैसा जीवरहित मृतक शरीर होय तैमा होय गया, शोक रूप दाहकर मुरझाया गया है मुख कमल जाका, यह ससुरारके नगरसे कसकर पृथ्वीविषै स्त्रीका निमित्त भ्रमण भया, मानों वायुकुमारको वायु लगी तब प्रहस्त मित्र याको अति आतुर देखकर याके दुःखते अति दुखी भया अर यासे कहता मया -- मित्र कहा खेद चिन्न होय है ? अपना वित्त निराकुल कर । यह पृथ्वी केतीक है जहां होयगी यहां ठीक कर लेवेंगे, तत्र कुमारने मित्रों कही तुम आदित्यपुर मेरे पिता जावो थर सफल वृत्तांत कहो जो मुझे प्रियाकी प्राप्ति न होयगी तो मेरा जीवना नहीं होयभा में सकल पृथ्वीपर भ्रमण करू हूं और तुम भी ठीक करो। तब मित्र यह वृत्तांत कहनेको श्रादित्यपुर नगरवि या पिताको सर्व वृत्तांत ह र पवनकुमार अम्बरगोवर हाथीपर चढ़कर पृथ्वीदिविचरता भया र मनविषे यह ता करी कि नह सुन्दरी कमल समान कोमल शरीर शोकके आता संतापको प्राप्त भई वह गई, मेर ही हैं हृव्यविषै ध्यान जाके । वह गरीबनी विरहरूप अग्निर्ते प्रज्वलित विषम नमे कौन दिशाको गई । : ह सत्यवादिनी निःपट धर्मकी थरनहारी गर्भका है भार जाके मत कवि वसन्तमालास रहित हो गई होय । वह पवित्रता श्रावकके व्रत पालनहारी राजकुमारी शोककर अन्ध हो गए है दोनों नेत्र जाके, र विकट वन विहार करती दुपासे पीड़ित जगरकर युक्तः जो अन्धकूप तामें ही पड़ी हो अथवा वह गर्भवती दृष्ट पशुवोंके भयङ्कर शब्द सुन प्राणरहित ही होय गई होय, वह प्राणोंतें भी अधिक प्यारी इस भयंकर अलि विना प्यासकर सूख गये हैं कंठ तालु जाके तो प्राणोंसे रहित होय गई होय, वह भोरी कदाचित गंगाविषै उत्तरी होय तहां नाना प्रकार के ग्राह सो पानी में बह गई हो, अथवा वह ऋति कोमल तनु डामकी अणीकर विहारे गये होंय चरण जाके सो एक पैंड भी पग धरनेकी शक्ति नाहीं सो न जानिये कहा दशा भई अथवा दुःखतें गर्भपात भया होय अर कदाचित बह जिधर्मकी सेहरी महादिरक्त भाग होय श्रार्या भई हाय ऐसा चितवन करते पवनंजयकुमारने पृथ्वीविषै भ्रमण किया सी वहान देखी तब विरह पीडित सर्व जगतको शून्य देखवा भया, मरणका निश्चय किया, न पर्वतविषै, न मनोहर अनिवि, न नदी के तटपर का ठौर ही . प्राणप्रिया विना इसका मन न रमता भया, ऐसा विवेति भया जो सुन्दराका वाता वृक्षों को पूछे भ्रमता २ भूतव नामा वनमें श्राया तां हाथत उतरा पर जैसे मुनि आत्माका ध्यान करें तेस प्रियाका ध्यान करें बहुरि हथियार घर बचतर पृथ्वीपर डार दिये श्रर गजेंद्रों कहते भए - हे गजराज ! अब तुम वनस्वच्छन्द विहारी हावो, हाथो दिनयकर निकट खड़ा है, आप बद्ध ६ है रजेन्द्र, नदीक तीर में शलका बन है ताके ओपल्लव सा चरते विव भर यहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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