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________________ १८ अठारहवां गर्व हथिनियोंके समूह हैं सो तुम नायक हाय विपरो। कंचने ऐसा कहा परन्तु वह कृतज्ञ धर्नाके स्नेहविगै प्रवीण कंबरका संग नहीं छोड़ता भया जैसे भला भाई भाईका संग न छोडे कवर अतिशोकवन्त ऐसे विकल्प कर कि अति मनोहर जो वह स्त्री नाहि यदि न पाऊं तो या वनविौ प्राण त्याग करू, प्रियाविौ लगा है मन जाका ऐसा जो पवनंजय तडि बनविणे रात्रि भई सो रात्रिके चार पहर चार वर्ष समान बीते नाना प्रकार के विकल्पकर कुल भया। यहां की तो यह कथा श्रर मित्र पितापै गया सो पिलायो पर्व वृत्तांत कहा : पिता सुःकर परम शोकको प्राप्त भया सबको शोक उपजा अर फेतुमती माता पुत्र शोझसे अति पीड़ित होय रोवती संती प्रहस्तकहती भई कि जो तू मेरे पुत्रको महल छोड़ श्राया सो भल न किया तब प्रहस्तने कही मोहि अति प्राग्रहकर तिहारे निस्ट भेजामो पाया अत्र तहां जाऊंगः सा माल ने कहीवह कहां है ? तप प्रहस्त ने कही जहां अंजनी है तहां होयगा ता याने कही अंजनी कहा है, ताने कही मैं न जानू । हे माता, जो विना विचार शीघ्र ही काम करें तिनको पश्चाताप होय । तिहारे पुत्रने ऐसा निश्चय किया कि जो मैं प्रियाको न देखू तो प्राण त्याग कर । यह सुनकर माता अति विलाप करती भई अन्तःपुरकी सकल स्त्री रुदन करती भई . माता विलाप करे हैं हाय मो पापिनीने कहा किया ? जो महासतीको कलंक लगाया जाकरि मेरा पुत्र जीवनेके संशयको प्राप्त भया । मैं कर भावकी धरण हारी महावक्र गन्द मा गनीन विना विनारै काम किया यह नगर या कुल अर विजया पर्वत पर रावण का अटक एवनंजय विना शोभे नहीं, मेरे पुत्र समान पर कौन, जाने वरुण जो रावण ने असाध्य ताहि ण देणे तामात्र में बांध लिया। हाय वत्स, विनयके श्राधार गुरु पूजनमें तस्पर, जगनसुन्दर विख्या गुण तू कहाँ गया ? तेरे दुखरूप अग्नि झरि तप्त यनान जो मैं, सो हे पुत्र, पादासे बचनाल प कर, मेरा शोक निबार, ऐसे विज्ञाप करती अपना उरस्थल पर सिर कूटनी जो केतुमती सो ताने सब कुम्ब शीकरूप किया। प्रल्हाद भी धान डारने भए सर्व परिवारको साथ ले प्रहस्तको अगवानी र अपर नगरसे पुत्र सोने चले दोनों श्रेणियोंके सर्व विद्या प्रीनिसों बुलाय सो परिवार सहित पाये । सब ही आकाशक मार्ग कवरको हदे हैं प्र येवी देखें है कर गम्भीर वन और लताओंमें देखे हैं पर्वतों देख ई पर प्रतिसूर्यके पास भी प्रल्वादका दूत गमा सो सुनकर महा शोकवान मया पर अंजना कहा सो अंजना प्रथम दुःखते भी अधिक दुःखका प्राप्त भई अश्रुधारास वदन पखालती रुदन करती भई कि हाय नाथ मेरे प्राणोंक आधार मुझमें बंधा है मन !जन्ह ने मो मोहि जन्मदुखारीको छोड़कर कहां ग १ कहा मुझसे कोप न छोड़ो हो जो सर्व विद्याथरोंसे अदृश्य होय रहे हो । एकवार एक भी अमत समान व वन मा । बोलो, एतदिन ये प्राण विहारे दर्शनकी वांछाकर राख हैं अब जो तुम न दीखा को ये प्राण मेरे किस कामके हैं, मेरे यह मनोरथ हुसा कि पतिका समागम होगा सो दैवने मनोरथ भग्न किया । मुझ मंद भागिनीके अर्थ आप कष्ट अवस्थाको प्राप्त भए तिहारे कष्टकी दशा सुनकर मेरे प्राण पापी क्यों न पिनश जाय ऐसे विलाप करती अंजनाको देखकर वसंतमाला कहती भई-हे देवी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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