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________________ पं-परण १८८ ऐगे अमंगल वचन मत कहो तिहारे धनीसे अवश्य मिलाप होयगा अर प्रतिसूर्य बहुत दिलासा करता भया कि तेरे पतिको शीघ्र ही लावै हैं ऐसा कह कर राजा प्रतिसूर्यने मनसे भी उतावला जो विमान ताविप चढ़कर आकाशतें उतरकर पृथिवी विष द्ढा प्रतिसूर्य लार दोनों श्रेणियों के विद्याधर अर लंकाके लोग यत्नकर ढढे हैं देखते २ भूतरख नामा अटवी विष आये तहां अम्वरगांचर नामा हाथी देखा, वर्षाकालके सघन मेघ समान है आकार जाका तब हाधीको देखकर सर्व विद्याधर प्रसन्न भए कि जहां यह हाथी है तहां पवनंजय है पूर्वे हमने यह हाथी अनेक वार देखा है यह हाथी अंज. गिरि समान है रंग जाका अर कुंदके फूल सान श्वेत हैं दांत जाम् र जेसी चाहिये तेथी सुन्दर है सूड जाकी। जव हाथीक समीप विद्याधर आए तब वाहि निरंकुश देख डरे अर हाथी विद्याधरोंके पटकका शब्द सुन महाक्षोभको प्राप्त भया, हाशी महाभयंकर दुबार शीघ्र है वेग जाका मदकर भोज रहे हैं कपोल जाके अर हाले हैं पर गाजे हैं कान जाके जिस दिशाको हाथी दौड़े ताही दिशासे विद्याधर हट जावें, यह हाथी लोगों का सम्रद देख स्वामीकी रक्षाविणे तत्पर सड़से बंधी है तलवार जाके महाभयंकर पवनंजका समीप न तजे सो विद्याधर बाल्पाय या के समीप न आवे तब विद्याथोंने हथिनियोंके समृासे इसे वश किया क्योंकि जेते वशीकरण के उपाय हैं, तिनमें स्त्री समान और कोई उपाय नहीं। तब ये आगे आय पवनकुमारको देवते भए मानो काठला है मौनसे बैठा है, वे यथायोग्य याका उपचार करते भए पर यह पितामें लीन काहूमों न बोलें जैसे ध्यानारूढ़ मुनि कामों न बोलें तव पवनजयके माता पिता आंसू डारते याके मस्तकको चूमते भए अर छातीसे लग वने भए पर कहते भए कि हे पुत्र, तू ऐसा विनयवान हमको छडकर कहां आया, महाकोमल सेजार सोवनहारा तेरा शरीर या समि वनविणै कैसे रात्री पतीत करी ऐसे वचन कहे तो भी न बोले तब इसे नमीभृत और मौवत्रत घरे, मरणका है निश्चय जाके ऐसा जानकर समस्त विद्याधर शोकको प्राप्त भए, पितः सहिन ब मिलाप करते भए। तब प्रतिमूर्य अननीका मामा सब विद्याथोंसे हता भया कि मैं वायुकुमारसे पचनालाप करूगा तब वह पवनंजयको छातीसे लगायकर कहना भया-हे कुमार ! मैं समस्त वृत्तांत कहूं सो सुनो। एक मह रमशीक संध्या भ्रनामा पर्वत तो अनंगवीचि नामः मुनिको केवलज्ञान उपजा था सो इन्द्रादिकदेव दर्शन को आए हुते भर में भी गया हुना भो बन्दनाकर आवता हुता सो मार्गमें पर्वतकी गुफा ता ऊपर मेरा विमान आया सो मैने स्त्रीके रुदनकी ध्वनि सुनी मानो वीन वाजे है तब मैं वहां गया, गुफरविणे अंजन देखी मैो वनके निवासका कारण पूछा तब बसंतमालाने सर्ववृत्तांत कहा । अंजनी शोक कर विठ्ठल रुदन कर सो मैं धैर्य बंधाया मर गुफामें ताके पुत्रका जन्म भया सो गुफा पुत्रके शरीर की कांतिकार प्रकाशरूप हो गई मानो स्वर्णकी रची है। यह वार्ता मुनसर पवनंजय परम हर्षमाप्त भए र प्रतिसूर्यको पूछते भए बालक सुखसे तिछे है ? तब प्रतिसूयेंने कहा बालकको में दिमाक में थापकर हनूमान द्वीपको जाऊं था सो मार्गमें बालक एक पर्वत पर पढा सो पर्वतके पस्नेका नाम सुनकर पवनजयने हाय हाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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