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________________ १८५ अठारहवां पर्व प्रवीण है । तुम जिर जा चरित्रविर्ष अनुरागी होवो। कैसा है जिनराजका चरित्र ? सारभूत जो मोक्षका सुख ताके देनेविष चतुर है, यह समस्त जगत निरन्तर जाम जरा मरणरूप सूर्यके आतापसे तप्तायमान है तामें हजारों जे व्याधि हैं तोई किरणोंका समूह है। इति श्रीरविषेणाचार्यविरक्ति महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, नाकी भाषा वचनिकाविषै हनुमानकी जन्म कथाका वर्णन करनेवाला सत्रहवां पर्व पूर्ण भया ।। १७ ॥ अथारन्तर गौतमम्थामी राजा श्रोणिकसे कहे हैं---हे माधदेशक मण्डन ! यह श्रीहनुमानजीके जन्भका वृत्तांत तो तुझे कहा अब इनुमानके पिता पवनंजयका वृत्तात सुन । पवनंजय पवनकी न्याई शीघ्रही रावण पै गया अर रावणसे आज्ञा पाय वरुणसे युद्ध करता भया सो बहुत देरतक नाना प्रकारके शस्त्रोंसे वरुणके पर पवन जयके युद्ध भया मो युद्ध विणे वरुणको बांध लिया ताने जो खरदूषणको बांधा हुता सो छुड़ाया अर वरुण को रावण के समीप लाया, वरुणने रावण की सेवा अंगीकार करी । रावण पधनंजयसे अति प्रसन्न भये तब परनंजय रावणसे विदा होय अंजनीके स्नेहसे शीघ्रकी घरको चले । राजा प्रल्हादने सुनी कि पुत्र विजय कर आया तब ध्वजा तोरण मालादिकोंसे न रोभित किया तब सब ही परिजन लोग सम्मुख आये नगरके सर्व नर नारी इनके कर्तव्य की प्रशंसा करें राजमहल द्वारे अर्घादिककर बहुत सम्मानकर भीतर प्रवेश कराया सारभूत मंगलीक वचनोंसे कुंवरकी सवही ने शंक्षा करी कुंवर माता पिताको प्रणाम कर सबका मुजरा लेय क्षण एक समाविष सवनकी शुश्रूषा कर आप अंजन के महल पधारे, प्रहस्त मत्र लार सो वह मल जैसा जीवरहित शरीर सुन्दर न लागे तैसे अंजनी बिना मनोहर न लागे तब मन अप्रसन्न होय गया । प्रहस्तसे कहते भए-हे मित्र ! यहां वह प्राणप्रिया कमलनयनी नहीं दीखै है सो कहा है यह मन्दिर उस विना मुझे उद्यान समान भासे है अथवा प्राकाश समान शून्य भासे है तातें तुम वार्ता पूछो वह कहां है ? तब प्रहस्त बाहिरले लोगोंसे निश्चय कर सकल वृत्तांत कहता भया, तब याके हृदयको क्षोभ उपजा माता पितासे विना पूछे मित्रसहित महेद्रके नगरमें गये, चित्तमें उदास जब राजा महेन्द्र के नगर के समीप जाय पहुंचे तब मनमें ऐया जाना जो आज प्रियाका मिलाप होयगा तब मित्रसे प्रसन्न होय कहते भए कि हे मित्र! देखो यह नगर मनोहर दिखे है जां वह सुन्दर कटानकी धरनहारी सुन्दरी 'विराजे है, जैसे कैलाश पर्वतके शिखर शोभाय न दोखे है तैन ये मालके शिखर रमणीक दीखे हैं अर वनके वृक्ष ऐम सुन्दर हैं मानां वर्षा काल की सघन घटा ही है । ऐसी वार्ता मित्रसे करते संते नगर के पास जाय पहुंचे। मित्र भी बहुत प्रशंसा करता आया । राजा महेंद्र ने सुनी कि पवनं. जयकुमार विजयकर पितासों मिल यहां आये हैं तब नगरकी बड़ा शोमा कराई अर आप अघोदिक उपचार लेय सम्मुख माया, बहुत आदर कुंवरको नगरमें लाये नगरके लोगोंने बहुत आदरतें गुण वर्णन किए। कुर राजमन्दिरमे आये एक मुहर्त समुरके निकट विराजे, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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