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पद्म पुराण हाथकी मुद्रिका जाकर ताहि विश्वास उपजै सो ले जावो पर उसका चूडामणि महा प्रभारूप हम पै ले भाइयो तब हनूमान कही जो आप आज्ञा करोगे सो ही होयगा, ऐसा कहकर हाथ जोड नमस्कारकर बहुरि लक्ष्मण नम्रीभूत होय बाहिर निकसा । विभूति कर परिपूर्ण अपने तेजकरि सर्व दिशाको उद्योत करता मग्रीवके मन्दिर आया अर सुग्रीवसों कही-जो लग मेरा श्रापना न होय तो लग बहुत सावधान यहां ही रहियो या भांति कहकर सुन्दर है शिखर जाके ऐसा जो विमान तापर चढा ऐसा शोभताभया जैसा सुमेरुके ऊपर जिनमन्दिर शोमै परमज्योति करि मंडित उज्ज्वल छत्र कर शोभित हंस समान उज्ज्वल चार जापर दुर है अर पवन समान अश्व चालते पर्वत समान गज अर देवनिकी सेना समान सेना ताकरि संयुक्त, या भांति महा विभूतिकरि युक्ताकाशविष गमन करता रामादिक सर्वने देखा । गीतमस्वामी राजा श्रेणिकतें कहे हैं-हे राजन्, यह जगत् नानो प्रकारक जीवनिकरि भरा है तिनमें जो कोई परमार्थक निमिच उद्यम करे सो प्रशंमा योग्य है अर स्वार्थतै जगत् ही भरा है। जे पराया उपकार करें ते कृतज्ञ हैं प्रशंसा योग्य हैं अर जे निःकारण उपकार करें हैं उनके तुल्य इन्द्र चन्द्र कुवेर भी नाहीं । श्रर जे पापी कृतमी पराया उपकार लोपै हैं वे नरक निगोद के पात्र हैं अर लोकनिंद्य हैं। इति श्री रविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ ताकी भाषा पचनिकाविष हनुमानकर लंका को दिशा गमन वर्णन करने वाला उनचासवां पर्ण पूर्ण भया ।। ४ ।।
-:०४००अथानंतर अंजनीका पुत्र प्रकाश विष गमन करता परम उदयधरै कैसा शोभता भया मानों पहिन समान जानकी ताहि लायवेकू भाई भामंडल जाय है। कैसे हैं हनूमान ? श्रीरामकी आज्ञाविष प्रवर्ते हैं महा विनयरूप ज्ञानवंत शुद्धभाव रामके कामका चिचमें उत्साह सो दिशा मंडल अवलोकते लंकाके मार्गविषै राजा महेंद्रका नगर देखते भये मानो इंद्रका नगर है । पर्वतके शिखरपर नगर बसे हैं जहां चंद्रमा समान उज्ज्व ल मंदिर है सो नगर दरहोते नजर आया तब हनूमाने देखकरि मनमें चिंतया यह दुर्बुद्धि महेंद्रका नगर है वह यहां तिष्ठं है, मेरा काहेका नाना मेरी माताको जाने संताप उपजाया था, पिता होयकर पुत्रीका ऐसा अपमान करे जो जाने नगरमें न राखी तब माता बनमें गई जहां अनंतगति मुनि तिष्ठं हुते तिनने अमृतरूप बघन कहकर समाधान करी सो मेरा उद्यानविष जन्म भया जहां कोई बंधु नाहीं मेरी माता शरो आवे अर यह न राखे यह क्षत्रीका धर्म नाहीं तात याका गर्व हरू तब क्रोधकर रणके नगारे बजाए पर ढोल बाजते भए शंखनिकी ध्वनि भई योवानिके मायुध झलकने लगे, राज महेंद्र परचक्र आया सुनकर सर्व सेना सहित बाहर निकस्या दोऊ सेना विष महायुद्ध भया महेंद्र रथमें चढा माथे छत्र फिरता धनुष चढाय हनुमानपर आया सो हनूमानने तीन वाणनिकारि ताका धनुष छेद्या जैसे योगीश्वर तीन गुप्ति कर मान छेड़े बहुरि महेंद्रने दुजा धनुष लवेका ऊबम किया ताके पहिलेही बाणनिकरि ताके घोडे छुटाय दिए सो रथके समीप भ्रमै जैसे मनके प्रेरे इन्द्रिय विषयनिमें भ्रमै बहुरि महेंद्रका पुत्र विमानमें बैठ
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