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पैदा-पुराण
जिनकर निर्दईका भी मन द्रवीभूत होय, श्रीराम चिंतवते भए, देखो मो मूढचित्तने दुष्टनिके वचनकर अत्यंत निंद्यकार्य किया कहां वह राजपुत्री अर कहां वह भयंकर वन ? यह विचारकर मूर्खाको प्राप्त भए बहुरि शीतोपचार कर सचेत होय विलाप करते भए सीतामें है चित्त जिनका ? हाय श्वेत श्याम रक्त तीन वर्णके कमल समान नेत्रनिकी धरणहारी, हाय निर्मल गुणनिकी खान सुखकर जीता है चन्द्रमा जाने, कमल की किरण समान कोमल, हाय जानकी, मोसे वचनालाप कर, तू जाने ही है कि मेरा चित्त तो विना अति कायर है । हे उपमारहित शीलब्रतकी धरणहारी, मेरे मनकी हरणहारी हितकारी हैं आलाप जिसके हे पापवर्जित निरपराध मेरे मनकी निवा सिनी तू कौन अवस्थाको प्राप्त भई होगी, हे देवी वह महाभयंकर वन क्रूर जीवोंकर भरा उसमें सर्व सामिग्री रहित कैसे तिष्ठेगी ? हे मोमें आसक्त चकोर नेत्र लावण्यरूप जलकी सरोवरी महालज्जा. वती विनयवती तू कहां गई, तेरे श्वासकी सुगन्धकर मुखपर गुजार करत जे भ्रमर तिनको हस्त कमल कर निवारती अति खेदको प्राप्त होयगो, तू यथस विछुरी मृगीकी न्याई अकेली भयंकर वनमें कहां जायगी ? जो वन चितवन करते भी दुस्सह उसी में तू अकेली कैसे तिष्ठेगी कमलके गर्भ समान कोमल तेरे चरण महा सुन्दर लक्षण के धारणहारे कर्कश भूमिका स्पर्श कैसे सहेंगे र वनके भील महा म्लेच्छ कृत्य अकृत्यक भेदसे रहित है मन जिनका सो तुझे पाकर भयंकर पल्ली में लेगर होवेंगे सो पहिले दुःख से भी यह अत्यंत दुख है तू भयानक बनवि मोविना महा दुख को प्राप्त भई होयगी अथवा तू खेदखिन्न महा अंधेरी रात्रीविष वनकी रजकर मण्डित कहीं पडी होगी सो कदाचित् तुझे हाथिनने दाबी होय सो इस समान अर अनर्थ कहा अर गृध्र रीछ सिंह व्याघ्र अष्टापद इत्यादि दुष्ट जीनों कर भरा जो वन उसविप कैसे निवास करेगी ? जहां
मार्ग नाहीं विकराल दाढके धरन हारे व्याघ्र महा क्षधातुर तिन कैसी अवस्थाको प्राप्त करी - होयगी जो कहिवे में न आवै अथवा अग्निकी मालाके समह कर जलता जो वन उसमें शुभ अस्थानकको प्राप्त भई होयगी, अथवा सूर्य की अत्यंत दुस्सह किरण तिनके अाताप कर लाख की न्याई पिघल गई होयगी, छायामें ज यवेकी नाहीं है शक्ति जिसकी अथवा शोभायमान शील की धरण हारी मो निर्दई विष मनकर हृदय फटकर मृत्युको प्राप्त भई होयगी । पहिले जैसे रत्नजटी ने मोहि सीताके कुशल की वार्ता प्राय कही तैसे कोई अब भी कहे, हाय हिय पतिव्रते विवेकवती सुखरूपिणी तू कहां गई कहां तिष्ठेगी क्या करेगी अहो कृतांतवक वह, क्या तैने सचमुच वनहीं में डारी, जो कहूं शुभ ठौर गेली होय तो तर मुखरूप चन्द्र से अमृतरूप वचन खिरं । जब ऐसा कहा तब सेनापतिने लज्जाके भारकर नीचा मुख किया प्रभारहित हो गया कछू कह न सके अति व्याकुल भया मौन गह रहा । तब रामने जानी सत्य ही यह सीताको भयंकर वनमें डार आया तब मूर्खाको प्राप्त होय राम गिरे बहुत बेरमें नीठि नीठि सचेत भए तब लक्ष्मण पाए अंतःकरणमें सोचको धरे कहते भए-हे देव, क्यों व्याकुन भये हो ? धीर्यको अंगीकार करो जो पूर्व कर्म उपार्जा उमका फल आय प्राप्त भया अर सकल लोकको अशुभके उदय कर दुख प्राप्त भया केवल सीता ही को दुख न भया ।
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