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________________ निन्यानोवां पर्व ५१५ सुख अथवा दुख जो प्राप्त होना होय सो स्वयमेव ही किसी निमित्तसे आय प्राप्त होय हे प्रभो जो कोई किसीको आकाशमें ले जाय अथवा कर जीवोंके भरे वन विपै डारे अथवा गिरिके शिखर धरे तो भी पूर्व पुण्य कर प्राणीकी रक्षा होय है, सब ही प्रजा दुखकर तप्तायमान है अांसुओंके प्रवाह कर मानों हृदय गल गया है सोई झरे है। यह वचन कह लक्ष्मण भी अत्यंत व्याकुल होय रुदन करने लगा जैसा दाहका मारा कमल होय तैपा होय गया है मुखकमल जिस का, हाय माता ! तू कहां गई दुष्ट जनोंके वचन रूप अग्नि कर प्रज्वलित है शरीर जिसका हे गुण रूप धान्यके उपजनेकी भूमि, वारह अनुप्रेक्षाओंके चितवनकी करणहारी हे शीलरूप पर्वतकी पृथिवी, हे सीते सौम्य स्वभावकी धारक, हे विवेचनी, दुष्टोंके वचन सोई भए तुपार तिनकर दाहा गया है हृदय कमल जिपका, राजहंस श्रीराम तिनके प्रसन्न करनेको मानसरोवर समान, मुभद्रा सारिखी कल्याण रूप सर्व प्राचारमें प्रवीण लोकों को मूर्तिवंत सुखकी आशिषा, हे श्रेष्ठे, तू कहां गई जैसे सूर्य विना आकाशकी शोभा कहां पर चन्द्रमा विना निशाकी शोभा ' कहां तैसे हे माता ती विना अयोध्याकी शोभा कहां ? इस भांति लक्ष्मण विलाप कर रामसे कहे हैं ---हे देव ! समस्त नगर बीण बांसुरी मृदंगादिकी पनि कर रहित भया है अर अह. निश रुदन की पनि पूर्ण है गली गली में बन उपयनविष नदियों के तटविष चौहटमें ह ट हाटमें घर घरमें लाक रुदन करें हैं जिनके अश्रपातकी धारा कर कीच होप रही है, मानों अयो. ध्याम वर्षा काल ही फिर आया है समम्त लोक आंसू डारते गद् गद् वाणीव र कष्ट से वचन उचारते जानकी प्रत्यक्ष नहीं है परोक्ष ही है, तो भी एकागचित्त भए गुण कीर्ति रूप पुष्पोंके समूहकर पूजे हैं । वह सीता पतिव्रता समस्त सतियोंके सिर पर विराजे है गणों कर महा उज्ज्वल उसके यहाँ आरने की अभिलापा सबोंको है । यह सब लोक माताने ऐसे पाले हैं जैसे जननी पुत्रको पाले सो सब ही महा शोक कर गण चितार २ रुदन करे हैं, ऐसा कौन है जिसके जानकीका शोक न होय तात हे प्रभो तुम सब बातों में प्रवीण हो अब पश्चाताप तजो पश्चाताप से कछु कार्य की सिद्धि नाहीं जो आपका चित्त प्रसन्न है तो सीताको हेरकर बुलाय लेंगे अर उनके पुण्यके प्रभावकर कोई विघ्न नाहीं आप धैर्य अबलम्बन करवेयोग्य हो या भांति लक्ष्मण के वचनकर रामचन्द्र प्रसन्न भए कछु एक शोक तज कर्तव्यमें मन धरा। भद्रकलश भण्डारीको बुलाय कही तुम सीताकी श्राज्ञासे जिम विधि किमइच्छा दान करते थे तैसे ही दिया करो सीता के नामसे दान बटे तत्र भंडारी ने कही जो आप आज्ञा करोगे सोई होइगा । नव महीने अर्थियों को किम इच्छा दान बटियो किया, रामके आठ हजार स्त्री तिनकर सेवमान तो भी एक क्षण मात्र भी मन कर सीताको न बिसारता भया। सीता २ यह आलाप सदा होता भया, सीता के गुणों कर मोहा है मन जिसका सर्वदिशा सीतामई देखता भया स्वप्नमें सीताको या भांति देखे पर्वत की गुफा में पडी है पृथिवीकी रज कर मंडित है अर नेत्रोंसे अश्रुपात कर चौमासा कर राखा है महा शोक कर व्याप्त है या भांति स्वप्नमें अवलोकन करता भया । सीताका शब्द करता राम ऐसा चितवन करे है-देखो सीता सुन्दर चेटाकी थरणहारी दूर देशान्तरविर्षे है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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