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________________ पा-पुराण निंद्य है, वहुत क्या कहूं महि तुम मूर्तिवती साक्षात् ६. यकी सांद्ध जानो। मेरा विश्वासकर तुम्हारे मनविषे जो होय सो कहो । हे स्वामिनी ; हमारं होते तोहि खेद कहा, तब उपरम्भा निश्वास लेकर कपोलविणै कर धर मुखमेंसे न निकसते जो वचन उसे बारम्बार प्रेरणाकर बाहिर निकासती भई । हे सखी ! वालपने हीसे लेकर मेरा मन रावणविणे अनुरागी है, मैं लोकविणे प्रसिद्ध महा सुन्दर ताके गुण अनेक वार सुने हैं सो मैं अन्तरायके उदयकर अबतक रावणके संगमको प्राप्त न भई चित्तविष परम प्रीति धरू हूं और अप्राप्तिका मेरे निरंतर पछताना रहै है । हे रूपिणी; मैं जानू हूं यह कार्य प्रशंसा योग्य नाही, नारी दूजे नरके सयोगसे नरकविणे पडै है, तथ पि मैं रणको सहि समर्थ नहीं जाते हैं मिश्रभाषिणी ; मेरा उपाय शीघ्र कर । अब वह मेरे मनका हरणहारा निकट आया है । किसी भांनि प्रसन्न होय मेरा उससे संयोग कर दे, मैं तेरे पायन पडूहूँ। ऐसा कहकर वह भामिनी पांय परने लगी, तब सखीने सिर थांभ लिया कार यह की कि हे स्वामिनः ; तुम्हारा कार्य क्षमात्रविणे सिद्ध करू। यह कह कर दती घरसे निकसी, जाने है सकल इन वातनकी रीति, अति सूक्ष्म श्याम वस्त्र पहरकर आकाशके मार्ग रावणाके डेरेविणे याई, राजलोकमें गई, द्वारपालो पन आगमनका वृत्तान्त कहकर रावणके निट जाय प्रणाम किया, अज्ञा पय बैठकर विनती करती भई-हे देव ; दोपके प्रसंगते रहित तिहारे सकल गुणोंकर गह सकल लोक व्याप्त हो रहा है, तुमको यही योग्य है श्रति उदार हैभव तिहाग, या पृथ्वी विणे सब हीको तृप्त करो हो, तुम सबके आनन्द निमित्त प्रगट भए हो । प्राकार देख कर य: मनधिले जानिए है कि तुम काहू की प्रार्थना भंग न करी हो, तुम बड़े दातार सबके अर्थ पूर्ण करो हो, तुम सारिखे महन्त पुरुषों की जो विभूति है तो परोपकार हीके अर्थ है सो आप सबको विदा देकर एक क्षण एकांत विराजकर चिच लगाय मेरी रात सुनो तो मैं कहूं । तब रावणने ऐसा ही किया तब याने उपरम्माका सकल वृत्तांत कानविगै कहा। तब रावण दोनों हाथ कानन पर धर सिर धुनि नेत्र संतोच केकमी मानाके पुत्र पुरुषों विष उत्तम सदा श्राचारपरायण कहते भए । हे भद्रे ! क्या कही ? यह काम पापके बंधका कारण कैसे करने में आवै ? मैं परनारियों को अंगदान करनेलिपै दरिद्री हूँ ऐसे कर्मों को धिक्कार होवे । तैंने अभिमान तजकर यह बात कही परन्तु जिनशासनकी यह आज्ञा है कि विधवा अथवा थनीको राणी अथवा कुव.री तथा वेश्या सर्व हो परनारो सदा काल सर्वथा तजनी। परनारी सवती है तो क्या, १६ कार्य इस लोक अर परलाकका विरोधी विवेकी न करें, जो दोनों लोक भ्रष्ट करै सो काहेका मनुष्य, हे भद्रे ! परपुरुषकर जाका अंग मर्दित भया ऐसी जो परदारा सो उच्छिष्ट भोजन समान है ताहि कौन नर अंगीकार करै ? यह बात सुन विभीष महामन्त्री सफल नयके जाननहारे राजविद्याविष श्रेष्ठ है बुद्धि जिनकी, रावणको एकांना कहते भए-हे देव ! राजाओंके अनेक चरित्र हैं काहू समय काह प्रयोजन के अर्थ किंचिदमात्र अलाक भी प्रतिपादन करे हैं तातें आप या अत्यन्त रूखी बात मत कहो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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