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________________ बारहवा पर्व समान जल निर्मल उसमें खेचर भूचर जलचर क्रीडा करते भये। जे घोडे रजमें लोटकर मलिन शरीर भए हुते गंगामें निहलाय जलपान कराय फिर ठिकाने लाय बांधे, हाथी सपराए । रावण बालीका वृत्तान्त चितार चैत्याल पोंको नमस्कार कर धर्मरूप चेष्टा करता तिष्ठा। अथानन्तर इन्द्रने दुलधार नामा नग में नलकूबर नामा लोकपाल थारा हुता सो रावम को हलकारों के मुखत नजीक पाया जान इन्द्र के निकट शीघ्रगामी सेवक भेजे और सर्व वृत्तत लिखा जो रावण जगतको जीतता समुद्ररूप सेनाको लिए हमारी जगह जीतनेके अर्थ निकट आय पड़ा है या ओरके सर्वलोक कम्पायमान भए हैं सो यह सम चार लेकर नलकूबरके इनबारी मनुष्य इन्द्रके निकट पाए, इन्द्र भगवानके चैत्याल की बन्दनाको जाते हुते सो मार्गविष इन्द्र को पत्र दिया। इंद्रने यांचकर सर्व रहस्य जानकार पीछे जबाब लिखा जो मैं पडुकवनके चैत्यालयों की बन्दनाकर श्राऊ हूं इतने तुम बहुत यत्नमे रहना, अमोघःस्त्र कहिए ख ली न पड़े ऐसा जो शस्त्र उसके धारक हो अर मैं भी शीघ्र ही आऊ हूं ऐस. लिखकर बन्दनाविषै आसक्त है मन जाका वैरियोंकी सेनाको न गिनता हुआ पांडुकवन गया पर नलकूपर लोकपालने अपने निज वर्गसे मन्त्रकर नगरकी रक्षामें तत्पर विद्यामयी सौ योजन ऊंचा बज्र गालामा कोट बनाया, प्रदक्षिणाकर तिगुणा । रावणने नलकूबरका नगर जाननेके अर्थ प्रहस्त नामा सेनापति भेजा सो जायकर पीछे आय रावणसे कहता भवा-हे देव ! मायामई कोटकर मण्डित वह नगर है सो लिया न जाय । देखो प्रत्यक्ष दीखे है सर्व दिशाओंमें भयानक विकराल दाढको धरे सर्प समान शिखर जिसके अर बलता जो सघन बांसनका वन उस समान देखी न जाय ऐसी ज्वालाके समूहकर संयुक्त, उठे हैं स्फुलिंगोंकी राशि जिसमें अर याके यंत्र बैतालका रूा धरै विकराल हैं दाढ जिसकी, एक योजनके मध्य जो मनुष्य आवै ताको निगल हैं, तिन यंत्रविष प्राप्त भए जे प्राणियोंके समूह तिनका यह शरीर न रहे, जन्मान्तरमें और शरीर धरै । ऐसा जानकर आप दीर्घदर्शी हो, सो या नगरके लेनेका उपाय विचारो। तब रावण मत्रियोंसे उपाय पूछने लगे सो मन्त्री मायामई कोटके दूर करनेका उपाय चिंतवते भए। कैसे हैं मन्त्री ? नीति शास्त्रविष अति प्रवीण हैं। अथानन्तर नलकूर की स्त्री उपरम्भा इन्द्रकी :अप्सरा जो रम्भा ता समान है गुण अर रूप जाका पृथ्वीविष प्रसिद्ध, सो रावणको निकट आया सुन अति अभिल पा करती भई। आगे रावण के रूप गुण श्रवणकर अनुरागवती थी ही, सो रात्रिवि अपनी सखी विचित्रमाला को एकांवमें एसे कहती भई-हे अन्दरी ! मेरे तू प्राण समान सखी है, तुझ समान और नहीं। अपना अर जिसका एक मन होय उस को सखी कहिए, मेरेमें अर तेरेमें भेद नहीं, तात हे चतुरे! निश्चयसे मेरे कार्यका साथन तू करै तो तुझे अपनी जी की बात कहूं । जे सखी हैं ते निश्चयसेती जीतव्यका अवलम्बन होय हैं जब ऐसे रानी उपरम्भाने कहा तब सखी विचित्रमाला कहती भई-हे देवी! एती वात क्या कहो ? हम तो तिहारे आज्ञाकारी जो मनवांछित कार्य कहो सोही करें । मैं आपन मुख से अपनी स्तुति क्या करू', अपनी स्तुति करना लोकविषे, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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