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________________ १२४ पद्म-पुराण हाथ पकड़ लिया, मरतेको बचाय लिया, छातीसे लगाय कर कहने लगा- हे मित्र ! आत्मघात का दोष तू न जाने है । जे अपने शरीरका अविवि से निपात करे हैं ते शुद्र मर कर नरकमें जाय पडे है । अनेक भव अल्प आयुके धारक होय हैं। यह आत्मघात निगोद का कारण है । या भांति कहकर मित्रके हाथसे खड्ग छीन लीना अर मनोहर वचनकर बहुत सन्तोषा अर कहने लगा कि हे मित्र ! अब आपसमें परस्पर परममित्रता है सो यह मित्रता परभव में रहे कि न रहै । यह संसार असार है। यह जीन अपने कर्मके उदय कर भिन्न भिन्न गतिको प्राप्त होय है या संसारमें कौन किसका मित्र श्रर कौन किसका शत्रु है सदा एक दशा न रहे । यह कहकर दूसरे दिन राजा सुमित्र महामुनि भए, पर्याय पूर्खकर दूजें स्वर्ग ईशान इंद्र भए तहांसे वय कर मथुरा में राजा हरिवाहन जिसके राणी माधवी तिन मधुनामा पुत्र भए । हरिवंश रूप आकाशविषै चंद्रमा समान भए अर प्रभव सम्यक्त्व विना अनेक योनियों में भ्रमणकर विश्वावसुकी ज्योतिष्मती जो स्त्री ताकै शिखी नामा पुत्र भया सो द्रव्यलिंगी मुनि होय महा त कर निदानयोगसे असुरों के अधिपति चमरेंद्र भए । तब अवधिज्ञानकर अपने पूर्वभव विचार सुमित्र नामा मित्रके गुण ऋति निर्मल अपने मन धरे । सुमित राजाका यतिमनोज्ञ चरित्र चितारकर असुरेंद्र का हृदय प्रीतिकर मोहित भया, मनांवर्षे विचारा कि राजा सुमित्र महागुणवान मेरा परम मित्र हुता सर्वकार्यों में सहाई था उस सहित मैं चटशालाचिषे विद्या पड़ा, मैं दरिद्री था उसने आप समान विभूतिवान किया अर मैं पापी दृष्टचित्तने उसकी स्त्रीविषै खोटे भाव किए तो हू उसने द्वेष न किया स्त्री मे घर पठाई मैं मित्रकी स्त्री को माता समान जान यति उदास होय अपना शिर खड्गसे काटने लगा तब उस हीने थाम लिया पर मैने जिन शासन की श्रद्धा विना मरकर अनेक दुख भोगे अर जे मोक्षमार्ग के प्रवरतनहारे साधु पुरुष तिनकी निंदा करी सो कुयोनिर्विषै दुख भोगे अर वह मित्र मुनित्रत श्रौंगीकारकर दूजे स्वर्ग इन्द्र भया तहांसे चयकर मधुरापुरीविषै राजा हरिवाहनका पुत्र मधुवाहन हुआ है पर मैं विश्वावसुका पुत्र शिखीनामा द्रव्यलिंगी मुनि होय सुरेन्द्र भया । यह विचार उपकारका खेंचा परम प्रेम कर भीगा है मन जाका अपने भवनसे निकसकर मध्यलोकविषै आया मधुवाहन मित्र से मिला । महा रत्नोंसे मित्रका पूजन किया सहस्रांत नामा त्रिशूलरत्न दिया । मधुवाहन चमरेंद्र को देखकर बहुत प्रसन्न भया फिर चमरेंद्र अपने स्थानको गया । : हे श्रेणिक ! शस्त्र विद्या का अधिपति सिंहोंका है बाहन जिसके ऐसा मधुकुमर हरिवंशका तिलक, रावण है श्वसुर जिसका सुखसों तिष्ठ । यह मधुका चरित्र जो पुरूष पढ़ें सुने सो कांतिको प्राप्त होय अर या सर्व अर्थ सिद्ध होय | अथानन्तर मरुतके यज्ञका नाश करणहारे जो रावण सो लोकविषै अपना प्रभाव विस्तारता हुवा शत्रुत्रों को वश करता हुआ अठारहवर्ष विहार कर जैसे स्वर्ग में इन्द्र दर्प उपजावै तैसे उपजावता पृथिवीका पति कैलाश पर्वत समीर आए तहां निर्मल जल है जिसका ऐसी मन्दाकिनी कहिये गंगा समुद्र की पटराणी कमलन के मकरन्दकर पीत है जल जिसका, ऐसी गंगा के वीर कटकके डेरे कराए और आप कैलाशके कच्छ में क्रीडा करता भया । गंगाका स्फटिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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