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________________ बारहवां पर्व १२३ योग्य जो गामिग्री सो उसको दीनी । बड़ी विभूतिते वसने अपनी पुत्री परणाई सर्व जोक afia भए । यह रावण की पुत्री साक्षात् लक्ष्मी महा सुन्दर शरीर पतिके मन और नेत्रोंकी हरनहारी जगत् देव सुगन्ध नाहीं ऐसे सुगन्ध शरीरकी धारनहारी इसको पायकर मधु प्रति प्रसन्न भगा || यानंतर राजा श्रेणिक जिनको कौतूहल उपजा वह गौतम स्वामीसे पूछते भए - हे नाथ ! सुरेन्द्र कौन कारण त्रिशूल रत्न दिया दुर्लभ है संगम जिसका । तत्र गौतम स्वामी जिनधर्मियोंसे हैं बाल्य जिनके, त्रिशूल की प्रातिका कारण कहते भए । हे श्रेणिक ! arrates नामाद्वीप तहां और वन क्षेत्र शतद्वारा नगर वहां दो मित्र होते भए । महा प्रेम का है बन्धन जिनके, एकका नाम सुभित्र दूसरेका नाम प्रभव । सो यह दोनों एक चटशाला में पढ़कर पंडित भए । कई एक दिनोंमें सुमित्र राजा भया, सर्व सामन्तोंकर पूर्वोपार्जित पुण्य कर्म के प्रभाव से परम उदयको प्राप्त भया अर दूजा मित्र प्रभव सो दलिद्र कुल में उपजा महादलिगी । सो सुमित्रने महास्नेहसे अपनी बराबर कर लिया। एक दिन राजा सुमित्रको दुष्ट घोड़ा हरकर बनमें लेगया। वहां दुतिदृष्टिनाम भीलोंका राजा सो इसको अपने घर लेगया उसको बनमाला पुत्री पराई को वह बननाला माचात् वनलक्ष्मी, उसको पारा राजा सुमित्र अति प्रसन्न हुवा । एक मास वहां रहा । बहुरि मौलोंकी सेना लेकर स्त्रीसहित शतद्वार नगर में वे था पर प्रभव दुइनको निकसा सा मार्ग में स्त्रीसहित मित्रको देखा । कैसी है वह स्त्री मानों कामकी पताका ही है । तो देखकर यह पाप प्रभव मित्रकी भार्याविषै मोहित भया, अशुभ कर्मके उदय से नष्ट भई हैं कृत्य अकृत्पकी बुद्धि जिसके, प्रभव कामके वाणों कर बीधा हुवा अति श्राकुलताको प्राप्त भया आहार द्रादिक सर्व विस्मरण भया, संसार में जेवी व्याधी हैं तिनमें मदन बड़ा व्याधि है जिसकर परम दुख पाइये है जैसे सर्व देवनिमें सूर्य प्रधान है तेस सर्व रोगों के मध्य मदन प्रधान हैं। सुत्र की खेट खिन्न देख पूछते भए - हे मित्र ! तू खेदखिन्न क्यों हैं ? तब यह मित्र को कहने लगा जो तुम वनमाला पाणी ताको देख कर चित व्याकुल भया है । यह बात सुन कर राजा सुमित्र, मित्र में हैं अति स्नेह जिसका, अपने प्राण समान मित्रको पनी स्त्रीके निमित्त दुखी जान स्त्रीको मित्र के घर पठावता भया । अर आप आपा छिपाय मित्र के झरोखे में जाय बैठा कर देखे कि यह क्या करें जो मेरी स्त्री याकी आज्ञा प्रमाण न करें. तो में स्त्रीका निग्रह करू' अर जो इसकी याज्ञा प्रमाण करे तो सहस्र ग्राम दूं । रुनमाला रात्रि के समय प्रभवके समीप जाय बैठी । तब प्रभव पूछता भया - हे भद्रे ! तू कौन हैं । तब इसने विवाह पयंत सर्व वृत्तान्त कहा । सुन कर प्रभव प्रभारहित हो गया, चित्तविषै अति उदास भया । विचार है- हाय ! हाय ! मैं यह क्या अशुभ भावना करी, मित्रकी स्त्री माता ममान कौन वांछे है, मेरी बुद्धि भ्रष्ट भई, इस पाप से मैं कब छुटू' । बने तो अपना सिर काट डारू, कलंकयुक्त जीने कर क्या ? ऐसा विचार मस्तक काटनेके अर्थ म्यान से खड्ग काढया । खड्गकी कांति कर दशों दिशाविषै प्रकाश हो गया तब तलवारको कण्ठके समीप लाया और सुमित्र झरोखे में बैठा हुता सो कूद कर आय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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