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________________ १२७ बारहवां पर्व वह उ: रम्भा वश भई सन्ती कछु गढक लेनेका उपाय कहेगी। ऐसे वचन विभीषणके सुनकर रायण राजविद्या निपुण मायाचारी विचित्रमाला सखीसे कहते भए, हे भद्रे वह मेरेमें मन गखें है अर मरे बिना अत्यन्त दुखी है तातें बाके प्राणोंकी रक्षा मुझकू करनी योग्य है सो प्राणोंसे न छूटे या प्रकार पहले उसको ले श्रावो, जीवोंके प्राणोंकी रक्षा यही धर्म है ऐसा कह कर सखीको सीख दीनी सो जायकर उपरम्माको तत्काल ले आई, रावणने याका बहुत सन्मान किया । तब वह मदन सेवनकी प्रार्थना करती भई । रावणने हो-हे देवी! दुर्लघ नगरावर्षे मेरी रमणेकी इच्छा है ! यहां उद्य नावे कहा मुख ? ऐसा करो जो नगरमें मैं उन सहित रमूं। तब वह कामातुर उसकी कुटिलताको न जानकर स्त्रियोंशा मूढ स्वभाव होय है, तान ताने नगरके मायामई कोट भवनका आय मानका नाम विद्या दीनी । पर बहुआदरसे नाना प्रकारके दिव्य शस्त्र दिए । देवोंकर करिए दै रक्षा जिनकी, तब विद्याके लाभसे तत्काल मायामई कोट जाता रहा जो सदाका कोट था माही रह गया तब रावण बडी मेनाकर नग के निकट गया अर नगर के कोलाहल शब्द सुनकर राजा नलकूवर क्षोभको प्राय भवा मायामई कोटको न देखकर निषाद मन भया र जाना कि रावणने नगर लिया तथापि महारुपार्थको थरता हुआ युद्ध करने को बाहिर निसा, अनेक सामन्तों सहित परस्पर शस्त्ररके समूहसे महासंग्राम प्रवरता जहां सूर्यके किरण भी नजर न आवै, क्रूर हैं . जहां । विभोपणन शीघ्र ही लातको दे नलकूररका रथ तोड़ डाला अर .लकूपरको पकड़ लिया जै.. रा.णने सहस्रकिर को पकड़ा था तैसे विभीषणने नलकूबरको पकड़ा। रावणकी आयुधालाटिपै मुशनचर उजा | उपरम्भा को रावणने एकांत कही-जो तुम विद्यादानसे मेरे गुराणी हो अर तुमको यह योग्य नहीं जो अपने पति को छोड़ दूना पुरुष सेवा अर सुरू भी अन्याय मार्ग सेरना योग्य नहीं। या भांति याकौं दिलासा करी । नलकूवरको इसके अर्थ छोड़ा । कैसा है नर कूकर ? शस्त्रोंसे विदारा गया है वखतर जिसका, लगा है शरीरके घाव जिसके, रावणने उपरम्भासे कही-इस भरतारसहित मनवांछित भोग कर। कामसेवनविष पुरुषों में क्या भेद है कर अयोग्य कार्य करनेसे तेरी अकति होय अर मैं ऐकलं वो और लोग भी इस मानव प्रयते । पृथतीविष अन्याय की प्रवृत्ति होय अर तू राजा आकाशध्वजकी बेटी तेरी माना मृदुकांना मो तू विमलकुलविष उपजी शीलक र ख र योग्य है। या भांति रावणने कही तब उपरम्भा लज्जामान भई अपने भरतारविष सतप किया अर नलकूबर भी स्त्री का व्यभिचार न जान स्त्रीसहित रमता भया अर राम्ण बहुत सन्मान पाया। रावणकी यही रीति है कि जो आज्ञा न मानै ताका पराभव करै अर जो आज्ञा मान उसका सन्मान करै अर युद्धविर्ष मारा जाय सो भारा जावों अर पकड़ा आवै ताको छोड़ दे । राणने संग्रामविष शत्रुओंके जोतनसे बड़ा यश पाया, बड़ी है लक्ष्मी जिसके, महासेनाकरसंयुक्त वैताड़ पर्वके समीप जाय पड़ा। तब राजा इद्र रावणको समीप आया सुन कर अपन उमराव जे विद्याधर देव कहावें तिन समस्त ही से कहता भवा हो विश्वती आदि देव हो युद्धकी तैय्यारी करो, कहा विश्राम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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