SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पल-पुराण ~ ~ कर रहे हो । राक्ष का अधिपति अावा । यह कह कर इन्द्र अपन मिला जो श्रीसहश्रार तिनके समीप सलाह करनेको गया । नमस्कार र बहुत विनयसंयुक पृथिवी पर बैठ वापसे पूछी हे देव ! बैरी प्रबल अनेक शत्रुओंका जतनहारा निकट आया है सो क्या कर्तव्य है ? हे तात ! मैंने काम बहुत विरुद्ध किया जो यह वैरी होता ही प्रलयको न प्राप्त किया, कांटा उगता ही होठनसे टूटे अर कठोर परे पीछे चुभै, रोग होता ही मटे तो सुख उपजै अर रोगकी जड़ अर्थ तो कटना कठिन है तैसे चत्री शत्रुजी वृद्धि होने न दे । मैं इसके निपात का अनेक बेर उद्यम किया परन्तु आपने वृथा मने किया तब में क्षमा करी । हे प्रभो ! मैं र जनीतिके मागसे विनती करू हूं । याके मारने में असमर्थ नहीं हूं। ऐरो गर्व अरोधके भरे पुत्रके वचन सुनकर सहस्रारने कही -हे पुत्र ! तू शीघ्रता मत कर, अपने जेष्ठ मंत्री हैं तिनसे मंत्र विचार । जे विना विचारे कार्य करें हैं तिनके कार्य विफल होय हैं अर्थ की सिद्धिका निमित्त कंवल पुरुषार्थ नहीं है । जैसे कृषिकर्मया है प्रयोजन जिसके ऐसा जो किमान उसके मेघकी वृष्टि विना क्या कार्य सिद्ध होय १ अर जैसे चटशालामे शिष्य पढ़े हैं सब ही विद्याको नाहे हैं परन्तु कर्मके वशते काहू को सिद्धि न होय तातें केवल पुरुषार्थसे ही सिद्धि न होय । अब भी रावणसे मिलाप कर जब वह अपना भगा तब तु पृथिवीका निःकंट राज्य करेगा पर अपनी पुत्री रूपवती नामा महा रूपवती रावण को परणाय इसमें दोष नहीं। यह राजावों की रीति ही है। पवित्र है बुद्धि जिनकी ऐसे पिताने इन्द्रको न्याय रूप वार्ता कही परन्तु इन्द्रके मनमें न आई । क्षणमात्र में रोषकर लाल नेत्र हो गये, क्रोधकर पसेव ायगया, महा क्रोधरूप बाणी कहता भया -हे तात ; मारने योग्य वह शत्रु उसे कन्या कैसे दीजे, ज्यों ज्यों उमर अधिक होय त्यों त्यों बुद्धि क्षण होय है तातें तुम योग्य बात न कही। कहो मैं किससे घाट हूँ, मेरे कौन वस्तुकी कमी है जिससे तुमसे असे कार वचन कहे, जिस सुमेरुके पायन चांद बर्य लग रहैं सो उतंग सुमेरु कैसे और न । जो वह रावण पुरुषार्थकर अधिक है तो मैं भी उससे अत्यन्त अधिक हूं अर देव उसके अनुकूल है तो यह बात निश्चय तुम कैसे जानी अर जो कहोगे उसने बहुत वैरी जीते हैं तो अनेक मृगतको हतनेहारा जो सिंह उसे क्या अष्टापद न हनै । हे पिता ; शास्त्रनके सम्पात कर उपजा है अग्निका समूह जहां असे संग्रामने प्राण त्यागना भला है परन्तु काहूसे नम्रीभूत होना बड़े पुरुषोंको योग्य नाहीं । पृथिवी पर मेरी हास्य होय कि यह इंद्र रावणसे नम्रीभूत हुवा, पुत्री देकर मिला सो तुमने यह तो विचारा ही नहीं अर विद्याथरपनेकर हम पर वह बराबर हैं परन्तु बुदे पराक्रम में वह मेरी बराबर नहीं जैसे सिंह पर स्याल दोऊ वनके निवासी हैं परन्तु पराक्रममें सिंह तुल्य स्थाल नाही, असे पितासे गर्व के वचन कहे। पिताकी बात मानी नहीं। पितासे विदा होयकर आयुधशालामें गये, क्षत्रिगेको हथियार बांटे अर वक्तर बांटे पर सिंधूराग होने लगे, अनेक प्रकारके वादित्र बाजने लगे अर सेनामें यह शब्द हुवा कि हाथियोंको सजावो, घड़ों के पलान कसो, रथोंके घाड़े जोड़ो, खड़ा बांधो, वक्तर पहरो, धनुष बाण लो, सिर टोप थरो, शीघ्र ही खंजर लावो इत्यादि शब्द देवजातिके विद्याथरोंके होते भये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy