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पापैराण
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कैदिन समाधि मरणकर स्वर्ग लोकको प्राप्त भया, नियमके पर दान के प्रभावतें अद्भुत भोग भोगना भया, सैकडों देवांगनाओंके नेत्रों की कांति ही भई नील कमल तिनकी माला अर्चित चिरकाल स्वर्गके सख भोगे बहरि स्वर्गत चयकर जम्बूद्वीपमें मृगांकनामा नगर में हरिचन्द् नाम राजा ताकी प्रियंगुलक्ष्मी गणी, याके सिंहचन्द नामा पुत्र भए । अनेक कला गुणविषै प्रवीण अनेक विवेकियोंके हृदय में बसै, तहां भी देवों कैसे भोग किए, माधुवोंकी सेवा करी बहुरि समाधि कर देवलोक गए तहां मनवांछित अतिउत्कृष्ट सुख पाए | कैसा है वह ? देव देवियोंके जे वदन तेई भए कमल तिनके जोवन तिनके प्रफुल्लित करनेको सूर्य समान है बहुरि तहसेि चयकर या भरतक्षेत्र में विजयार्ध गिरिपर अहनपुर नगर में राजा सुकण्ठ रानी कनकोट ताके सिंहवाहन नाम पुत्र भए । अपने गुणनिकरि खैचा है समस्त प्राणियोंका मन जाने, तहां देवों कैसे भांग भांगे, अप्सरा समान स्त्री तिनके मनके चोर । भावार्थ अति रूपवान अति गुणवान सो बहुत दिन राज्य किया । श्रीविमलनाथजी के समोसरण मैं उपजा हैं आत्मज्ञान र संसारसे वैराग्य जिनको सो लक्ष्मी वाहन नामा पुत्रको राज्य दे संसारको सार जान लक्ष्मी तिलक मुनिके शिष्य भए । श्रीवीतराग देवका भाषा महात्रतरूप यतिका धर्म अंगीकार किया । श्रनित्यादि द्वादश अनुप्रेक्षाका चितवनकरि ज्ञान चेतनारूप भए । जो तप काहू पुरुपसे न बने सो तप किया, रत्नत्रयरूप अपने निज भावनिविषै निश्चल भए तत्व ज्ञानरूप श्रात्मा के ऋनुभवदिएँ मग्न भए तपके प्रभाव अनेक ऋद्धि उपजी सर्व बात समर्थ, जिनके शरीर को स्पर्श पवन सो प्राणियोंके अनेक रोग दुःख हरै परन्तु आप कर्म निर्जरा के कारण बाईस परिप सहते भए बहुरि आयु पूर्ण कर धर्म ध्यानके प्रसाद से ज्योतिष चक्रको उलंघ सातव लांतवनामा जो स्वर्ग तहां बडी ऋद्धिके धारी देव भए चाहे जैसा रूप करें चाहें जहां जाय, जो वचनकरि कहने मैं न था ऐसे अद्भुत सुख भोगे परन्तु स्वर्गके सुखमें मग्न न भए, परम धामकी है इच्छा जिनके । तहां चयकर या अंजनीकी कुक्षिविषै आए हैं सो महा परम सुखके भाजन हैं बहुरि देह न रंगे अनाशी सुखको प्राप्त होवेंगे, चरम शरीर हैं। यह तो पुत्रके गर्भ में वनेका वृत्तांत कहा। अब हे कल्याण वेष्टिनी ! याने जिस कारण से पतिका विरह अर कुटुम्ब निदर पाया सो वृत्तांत सुन। इस अजनी सुंदरीने पूर्व भवमें देवाधिदेव श्रीजिनंद्रदेवकी प्रतिमा पटराणी पदके अभिमानकर सोकन के ऊपर क्रोधकर मंदिरसे बाहिर निकासी, ताही समय एक समयश्री आर्यिका याके घर आहारकी आई हुती, तपकर पृथ्वी पर प्रसिद्ध थी सो याके श्रीजीकी मूर्तिका अविनय देख पारणा न किया पीछे चली अर याको अज्ञानरूप जान महादयावती होय उपदेश देती भई । जे साधु जन हैं ते सबका भला चाहें जीवनिके समझावनेके निमित्त विना पूछेही साधु जन श्रीगुरुकी श्राज्ञातैं धर्मोपदेश देनेको प्रचरतें हैं ऐसा जानकर वह संयमश्री शील सम्म रूप प्रापण की धरणहारी पटराणी को महामाधुर्य भरे अनुपम वचन कहती भई है भी सुन | तू राजाकी पराणी है अर महारूपवती हैं, राजाका बहुत सन्मान है, भोगोंका स्थानक ६ र शीत का फल है, या चतुर्गविविधै जीव भ्रम है, महादुख
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