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________________ सततरवां पर ४४३ विषै डूबूं हूं सो मुझे हस्तालम्बन कर क्यों न निकालो, इस भांति विभीषण विलाप करे है डार दिये हैं शस्त्र घर वक्तर भूमिमें जाने || अथानन्तर रावणके मरण के समाचार रणवासमें पहुंचे सो राणियां सब अनुपातकी थाराकर पृथिवी तल को मींचती भई अर सर्व ही अन्तःपुर शोककर व्याकुल भया सकल राणी रणभूमिमें आईं गिरती पडती डिगे हैं चरण जिनके वे नारी पतिको चेतनारहित देख शीघ्रही पृथिवी में पड़ीं। कैना है पति पृथकी चूडामणे है मंदोदरी, रंभा, चन्द्राननी, चन्द्रमण्डला, प्रवरा उर्वशी महादेवी, सुंदरी,, कमलानना, रूपिण, रुक्मिणी, शीला, रत्नमाला, तनूदरी, श्रीकांता, श्रीमती भद्रा, कनकप्रभा, मृगावती, श्रीमाला, मानवी, लक्ष्मी, आनन्दा, अनंगदरी, वसुंधरा तडिन्माला, पद्मा, पद्मावती, सुखादेवी, कांतिप्रीति, सुभा, प्रभावळी, मनोवेगा, कान्ता, रति मनोवती, इत्यादि अष्टादशसहस्र राणी अपने २ परिवार तिर सखिनिहित महाशोककी भरी रुदन करती भई कैयक मोहकी भरी मू को प्राप्त भई सो चन्दनके जनकर छोटी कुमलाई कमलिनी समान भासती भई, कैयक पतिक अंगसे अत्यन्त लिपटकर परी अंजनगिरिसों लगी संध्या तिको थरी भई, कैक मूर्च्छासे सचेत होय उरस्थल कूटती भई पतिके समीप मानों मेघके निकट विजुरी ही चमक है, कैयक पतिका वदन अपने अंग में लेकर विह्वल होय मूर्छा को प्राप्त भई, कोश्यक विलाप करे हैं-हाथ नाथ, मैं तिहारे बिरहमे अतिकायर मोहि तजकर तुम कहां गए ? तिहारे जन दुःखसागर में डूबे हैं सो क्यों न देखो तुम महाबली महासुन्दर परम ज्योतिक धारक विभूति कर इंद्र समान मानों भरत क्षेत्र के भूपति पुरुषं त्तम महाराजनिके राजा मनोरम विद्याधरनिके महेश्वर कौन अर्थ पृथिवी में पौढे । उठो, हे कांत, करुणानिधे स्वजनवत्सल एक श्रमृत समान वचन हमसे कहो, हे प्र णेश्वर प्राणवल्लभ, हम अपराधरहित तुमसे अनुरक चित्त हमपर तुम क्यों कोप भए ? हमसे बोल ही नाहीं जैसे पहिले परिहास कथा करते तैसे क्यों न करो तिहारा रूपी चन्द्र कांतिरूप चांदनी कर मनोहर प्रसन्नतारूप जैसे पूर्व हमें दिखावते हुते तैसे हमें दिखावो अर यह विहार वक्ष थल स्त्रियोंकी क्रीडाका स्थानक महासुन्दर ता विषै चक्रकी धाराने कैसे पग धारा र विद्रुम समान तिहारे ये लाल अधर अब कूडारूप उत्तर के देनेकों क्यों न स्फुटायमान होय हैं ? अबतक बहुत देर लगाई क्रोध कबहूं न किया अब प्रसन्न होत्रो, हम मान करतीं तो आप प्रसन्न करने मनावते इन्द्रजीत मेघवाहन स्वर्गलोक से चयकर तिद्वारे उपजे सो यहां भी स्वर्गलोक कैसे भोग भोगे अब दोऊ बन्धनमें हैं और कुम्भकर्ण बन्धनविषै है सो यह पुरयाधिकारी सुभट महागुणवन्त श्रीरामचन्द्र तिनसे प्रीतिकर भाई पुत्रको डा हे प्राणवल्लभ प्राणनाथ, उठो, हममे हिनकी बात करो, हे देव, बहुत देर सोचना कहा ? राजानिको राजनीति में सावधान रहना सो आप रज्य काजमें प्रव । हे सुन्दर हे प्राणप्रिय हमारे अंग विरहरूप अग्निकर अत्यन्त जरे हैं सो स्नेह रूप जलकर बुझावो । हे स्नेहियोंके प्यारं तिहारा यह वदनकमल और ही अवस्थाको प्राप्त भया है सो याहि देख हमारे हृदय के सौ ट्रक क्यों न हो जावें ? यह हमारा पापी हृदय वज्र का है दुःखका भाजन जी तिवारी यह अवस्था Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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