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________________ पा-पुराण केहरी समान कटि जिसकी, अर कदलीके समान सुन्दर जंघा जिसकी, कमल समान चरण समचतुरस्रसंस्थानकको थरै, महामनोहर शरीर जिसका, न अधिक लंबा न अधिक छोटा, न कृश न स्थूल, श्रीवत्स लक्षणको आदि देय बत्तीस लक्षणोंकर युक्त अर अनेक प्रकार रत्नोंकी किरणोंकर दैदीप्यमान है मुकट जिसका अर नाना प्रकारकी मणियोंकर मण्डित मनोहर है कुण्डल जिसके, बाजूबन्दकी दीप्तिकर दैदीप्यमान हैं भुजा जिसकी श्रर मोतियोंके हारसे शोभै हैं उर जिसको, अर्थ चक्रवर्तीकी विभूतिका भोगनहारा । उसे देख प्रजाके लोक बहुत प्रसन्न भए । परस्पर वात करें हैं कि यह दशमुख महावजवान जीता है वैश्रवण जिसने अर जीता है राजा यम जिसने, कैलाशके उठानेका उद्यमी हुमा अर प्राप्त कराया है राजा सहस्ररश्मिको वैराग्य जिसने, मरुतके यज्ञका विध्वंस करणहारा, महा शूरवीर साहसका धारी हमारे सुकृतके उदयकर इस दिशाको पाया। यह केकसी माताका पुत्र इसके रूपका गुण कौन वर्णन कर सकै, इसका दर्शन लोकोंको परम उत्सवका कारण है, वह स्त्री पुण्यवती धना है जिसके गर्भसे यह उत्पन्न हुआ अर वह पिता धन्य है जिससे इसने जन्म पाया अर वे बन्धु लोक धन्य हैं जिनके कुलमें यह प्रगटा अर जे स्त्री इनकी राणी भई जिनके भाग्य कौन कहे । इस भांति स्त्री झरोखावोंमें बैठी वात करै हैं अर रावणकी असवारी चली जाय है । जब रावण आय निकसै तब एक मुहूत गांवकी नारी चित्रामीमी होय रहैं, उसके रूप सौभाग्यकर हरा गया है चित्त जिनका स्त्रियोंको अर पुरुषों को रावण की कथाके सिवाय और कथा न रही। देशोंमें तथा नगर ग्राम तथा गां के बाड़े तिनमें जे प्रथान पुरुष हैं नाना प्रकारकी मेंट लेकर आय मिले अर हाथ जोड़ नमस्कर र विनती करते भये-हे देव ! महा विभवके पात्र तुम, तुम्हारे घरमें सकल वस्तु विद्यमान है । हे राजावोंके राजा ! नन्दनादि वनमें जे मनोज्ञ वस्तु पाइए हैं वे सकल वस्तु चितवनमात्रसे ही तुमको सुलभ हैं औसी अपूर्व वस्तु क्या है जो तुम्हारी भेंट करें तथापि यह न्याय है कि रीते हाथोंसे राजाओंसे न मिलिये ताते कछु हम अपनी माफिक भेंट करैं हैं जैसे भगवान जिनेंद्रदेवकी देव सुवर्णके कमलोंकर पूजा करें हैं तिनको क्या मनु य आप योग्य सामग्रीकर न पूजे हैं या भांति नाना प्रकारके देशोंके सामन्त बड़ी ऋद्धिके थारी रावणको पूजते भये । रावण तिनका मिन्ट वचन सुनकर बहुत सन्मान करता भया । रावण पृथ्वीको बहुत सुखी देख प्रसन्न भया जैसे कोई अपनी स्त्र को नाना प्रकारके रत्न आभूषणकर मंडित देख सुखी होय । जहां रावण मार्गके वश जाय निकसे उस देशमें बिना बाहे थान स्वयमेव उत्पन्न भए, पृथ्वी अति शोभायमान भई प्रजाके लोक परम आनन्दको थरते संते अनुरागरूपी जलकर इसकी कीर्तिरूपी वेलको सींचते भए । कैसी है कीर्ति ? निर्मल है स्वरूप जिसका, किसान लोग ऐसे कहते भये कि बड़े भाग्य हमारे, जो हमारे देशमें रत्नश्रवाका पुत्र रावण आया। हम रंक लाग कृषिकर्ममें आसक्त रूखे अंग खोटे बस्त्र हाथ पग करकश क्लेशसे हमारा सुख स्वादरहित एता काल गया अब इसके प्रभावसे हम सम्पदादिकर पूर्ण भए। पुण्यका उदय आया, सव दुखोंको दूर करणहारा रावण पाया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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