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________________ पहिले तो वैश्रवण जीता वह तो मुनि हो गया अर मुझे भी उसने जीता सो मैं भागकर तुम्हारे निकट आया हूं। उसका शरीर वीर रससे बना है। वह महात्मा है, वह ज्येष्ठ मध्यान्हका सूर्य समान कभी न देखा जाय है।" यह वार्ता सुनकर रथनपुरका राजा इन्द्र संग्रामको उद्यमी भया तब मंत्रियोंके समूहने मने कीया । कैसे हैं मंत्री ? वस्तुका ग्थार्थ स्वरूप जाननेहारे हैं। तब इन्द्र समझ कर बैठ रहा । इंद्र यमका जमाई ई उपने यमको दिलासा दिया कि तुम बड़े योधा हो, तुम्हारे योधापनमें कमी नहीं। परंतु रावण। प्रचंड पराक्रमी है यातें तुम चिंता न करो । यहां ही सुख से तिष्ठो ऐसा कह पर इसका बहुत सन्मान कर राजा इन्द्र राजलोकमें गए अर काम भोगके समुद्र में मग्न भए। कैसा है इन्द्र ? बड़ा है विभूतिका मद जाके रावणके चरित्रके जो २ वृत्तान्त यमने कहे हुते वैश्रवणाका वैराग्य लेना, अर अपना भागना वह इन्द्रको ऐश्वर्यके मदमें भूल गये जैसे अभ्यास विना विद्या भूल जाय अर मम मी इन्द्रका सस्कार पाय अर असुर संगीत नगर का राज पाय मान भंगका दुःख भूल गया । मनमें किनारने लगा कि मेरी पुती महारूपवन्त्री सो तो इन्द्रके प्रागों से भी प्यारी है अर मे अर इन्द्रका बड़ा सम्बन्ध है सा मेरे क्या कमी है ? अथानन्तर रावणने किहकंधपुर तो सूरजको दिया अर किहकुपु. रखरजको दीया । दोनों को सदाके हितु जान बहुत अदर किया। रावणके प्रसादसे बनम्वंशी सुखते तिष्ठे। रावण सब राजामा राजा महालक्ष्मी अर कीनिकों परै दिग्विजय करे। बड़े २ राजा दिनप्रति माय २ मिले सो रवगका कटकर समुद्र अनेक राजावोंकी सेनारूती नदीसे पूरित होता मया अर दिन २ विभव अधिक होता भया जैसे शुक्लपक्षका चन्द्रभा दिन २ कलाकर बढता जाय तैसे रावण दिन २ बढ़ता जाय । पुष्पक नामा विमान पर आरूढ होय त्रिकूटाचलके शिखर पर प्राय तिष्ठा । कैसा है विमान ? रत्नों की मालासे मण्डित है अर ऊंचे शिखरोंकी पंक्तिसे विराजे है मो शीघ्र जहां चाहै व जाग ऐसे विमानका स्वामी रावण महा थीर्यता कर मण्डित पुरको फलका है उदय ज'के । भूपणकर मण्डिन परम हर्षको प्राप्त भये । सव रावस रावणको ऐसे मंगल वचन गम्भीर शब्द कहते भये "हे देव ! तुम जयवन्त होवो, आनन्दको प्राप्त होओ, चिरकाल जीवो, वृद्धिको प्राप्त होतो, उपयोंको प्राप्त होवो" निरन्तर ऐसे मंगल वचर गम्भीर शब्द कर कहते भये । कई एक सिंह शारदूलों पर चढे, कई एक हाथी घोड़ों पर चढ़े, कई एक हंसों पर चढे, प्रमोदकर फूल रहे हैं नेत्र जिनके, देवों का आकार धरै, जिनका तेज आकाश विष फैल रहा है वन पर्वत अन्तरद्वीपके विद्याधर राक्षस आए समुद्र को देखकर विस्मयको प्राप्त भए । कैसा है समुद्र ? नहीं दीखे है पार जिसका, अति गम्भीर है महामत्स्यादि जलचरों कर भरा है, तमाल बन समान श्याम है पर्वत समान ऊंची २ उठे हैं लहरके समूह जिस विषे, पाताल समान ओंडा, अनेक नाग नागनिकरि भयानक नाना प्रकारके रत्नोंके समूह कर शोभायमान नाना प्रकारकी अद्भुत चेष्टाको धारै। ___ अर लंकापुरी अति सुन्दर हुती ही अर रावणके आनेसे अधिक समारी गई है। प्रति देदीप्यमान रत्नोंका कोट है, गम्भीर खाई से मण्डित है, कुंदके पुष्प समान अति उज्ज्वल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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