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________________ पवासीयां पर्व ४७७ होय तो कह, नील कमल समान तो सारिखा ही है, तब यह आंसू डार कहना भया - हे माता, तू रुदन तज वह मैं ही हूं तोहि देखे बहुत दिन भए तातैं मोहि न पहिचानें है तू विश्वास गह मैं तेरा पुत्र हूं तब वह पुत्र जान राखती भई, पर मोहके योगतै ताके स्तनोंसे दुग्ध झरा, यह मृदुमति तेजस्वी रूपवान स्त्रीनिके मनका हरणहारा धूर्डीका शिरोमणि जुत्र में सदा जीते बहुत चतुर अनेक कला जाने काम भोगमें आयुक्त, एक वसंतदाला नामा वेश्या सो ताके अति बल्लभ अर या माता पिताने यह काढा हुता सो इसके पीछे वे अति लक्ष्मीको प्राप्त भए, पिता कुण्डलादिक अनेक भूषण कर मण्डित घर माता कांचीदामाटिक अनेक श्राभरणोंकर शोभित सुखमे तिष्ठे पर एक दिन यह मृदुमति ससांक नगर में राजमंदिर में चोरीको गया सो राजा नन्दीवर्धन शशांक मुख स्वामीके मुख धर्मोपदेश सुन विरक्तचित्त भया था सो अपनी राणीसे कहे हैं कि हे देवी! मैं मोक्ष सुखका देनदारा मुनिके मुख परमधर्म सुना । ये इंद्रियनि के विषय विष समान दारुण हैं इनके फल नरक निगोद हैं सो मैं जैनेश्वरी दीक्षा धरूंगा तुम शोक मत करियो या भांति स्त्रीको शिक्षा देता हुता सो मृदुमति चोरने यह वचन सन अपने मनमें विचारी -- देखो यह राजऋद्धि तज मुनिव्रत धारे है अर मैं पापी चोरी कर पराया द्रव्य हरू हूं धिक्कार मोकू ऐसे विचारकर निर्मज्ञचित्त होय सांसारिक विषयभोगोंसे उदासचित्त भया स्वामी चन्द्रमुखके समीप सर्व परिग्रहका त्यागकर जिनदीक्षा आदरी शात्रोक्त महादुर्धर तप करता महाचमावान् महाप्राक आहार लेता भया । अथानन्तर दुर्गनाम गिरिके शिखर एक गुणनिधि नाम मुनि चार महीने के उपवास धर तिष्ठे थे वे सुर असुर मनुष्यनिकर स्तुति करिवे योग्य महाऋद्विवारी चारण मुनि थे सो चौमासेका नियम पूर्ण कर आकाशके मार्ग होय किसी तरफ चले गए, अर यह मृदुमति मुनि आहारके निमित्त दुर्गनामागिरि के समीप आलोक नाम नगर वहां आहार को आया, जूडा प्रमाण भूमि को निरखता जाय था सो नगर के लोकनि जानी यह वे मुनि हैं जो चार महीना गिरिके शिखर . रहे । यह जानकर यतिभक्तिकर पूजा करी पर इसे अति मनोहर आहार दिया नगर के लोकोंने बहुत स्तुति करी, इसने जानी गिरिपर चार महीना रहे तिनके भरोसे मेी अधिक प्रशंसा होय है सो मनका भरा मौन पकड रहा, लोकोंसे यह न कहीकि मैं और ही हूं अर वे मुनि और थे, और गुरु के निकट मायाशल्य दूर न करी, प्रायश्चित्त न लिया तैं तियंचगतिका कारण भया, तप बहुत किये थे सो पर्या पूरी कर छठे देव लोक जहां श्रभिरामका जीव देव भया था वहां ही यह गया पूर्वजन्म के स्नेहकर उसके घर या अतिस्नेह भया दोनों ही समान ऋद्धिक धारक अनेक देवांगनावों कर मंडित सुखके सामर में मग्न दोनों ही सागरां पर्यंत मुखसे रमे सो अभिरामका जीव तो भरत भया पर यह मृदुमतिका जीव स्वर्गसनम मायाचार के दोषसे इस जम्बूद्वीपके भरत क्षेत्र में उतंग है शिखर जिसके ऐसा जो निकुंज नामा गिरि उसमें महा गहन शल्लकी नामा वन वहां मेघकी घटा समान श्याम ऋतिसुन्दर गजराज भया, समुद्रकी गाज समान है गर्जना जिसकी अर पवन समान हैं शीघ्र गमन जिसका महा भयंकर आकारको घरे, अति मदोन्मच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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