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पभपुराण गिरिनि की गफा अर गिरिनिके शिखर पर विषम वन जिनमें दुष्ट जीव विचरे वहां श्रीराम जिनकन्पी होय ध्यान धरते भए अवधिज्ञान उपजा जाकर परमाणु पर्यन्त देखते भए अर जगतके मूर्तिक पदार्थ सकल भासे लक्ष्मणके अनेक भव जाने, मोहका संबंध नाही, तातै मन ममत्वको न प्राप्त होता भया। अब रामकी आयुका व्याख्यान सुनो कौमार काल वर्ष सौ१००मंडलीक पद वर्ष तीन सौ३०० दिग्विजय वर्ष चालीस४० अर ग्यारह हजार पांचसौ साठ वर्ष ११६० तीन खण्डका राज्य कर बहुरि मुनि भए । लक्ष्मण का मरण याही भांति था देवनिका दोष नाही अर भाईके मरणके निमित्त तैं रामके वैराग्यका उदय था अवधिज्ञान प्रतापकर रामने अपने अनेक भव जाने, महा धीर्यको धरै व्रत शीलके पहाड, शुक्ल लेश्या कर युक्त महा गंभीर गुणनिके सागर समाथान चित्त मोक्ष लक्ष्मीमें तत्पर शुद्धोपयोगके मागमें प्रवरते । सो गौतमस्वामी राजा श्रेणिक
आदि सकल श्रोताओंसे कहें हैं जैसे राम चन्द्र जिनेन्द्र के मार्ग में प्रवर्ते तैसे तुमहूं प्रवरतो, अपनी शक्ति प्रमाण महा भांति कर जिनशासनमें तत्पर होवो जिननामकं अक्षर महारत्नोंको पायकर हो प्राणी हो खोटा आचरण तजो, दुराचार महा दुखका दाता, खोटे थनिकर मोहित है आत्मा जिनका अर पाखण्ड क्रियाकर मलिन हैं चित्त जिनका वे कल्याणके मार्गको तज जन्म के आंधेकी न्याई खोटे पंथमें प्रवरते है, कैयक मूर्ख साधुका धर्म नाहीं जाने हैं, अर नानाप्रकार के उपकरण साधुके वताव हैं और निर्दोर जान ग्रहे हैं वे वाचाल हैं जे कुलिंग कहिये खोटें भेष मूढनिने आचरें है वे वृथा हैं तिनसे मोक्ष नाहीं जैसे कोई मूर्ख मृतक भारका वहै है सो वृथा खेद करे हैं, जिनके परिग्रह नाहीं अर काहूंस याचना नाहीं, वे ऋषि हैं वेई निग्रंथ उत्तम गुणनिकर कर मंडित पंडितों कर सेयवे योग्य हैं यह महावनी वलदवकं वैराग्यका वर्णन सुन संसारसे बिरक्त होको जाकर भवतापरूप सूर्यका आताप न पाको।
इति श्रीरविषणाचार्यविरचित महापद्मपुराण सस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वनिकाविषे
श्रीरामका वैराग्य गर्णन करनेवाला एकलौ उन्नीसवां पर्वा पूर्ण भया ।। ११६ ।। __ अथानन्तर गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहै हैं-हे भव्योत्तम ! श्रीरामचन्द्रके अनेक गुण धरणींद्र हू अनेक जीभकर गायवे समर्थ नहीं, वे महामुनीश्वर जगतके त्यागी महाधीर पंचोपवासकी है प्रतिज्ञा जिनके सो ईर्यासमिति पालते नन्द स्थली नामा नगरी तहां पारणा के अर्थ गए उगते सूर्य समान है दीप्ति जिनकी मानों चालते पहाड ही हैं महा म्फटिक मणि समान शुद्ध हृदय जिनका वे पुरुषोत्तम मानों मृतिवंत धर्म ही है, मानों तीन लोकका आनन्द एकत्र होय रामकी मूर्ति निपजी है महा कांतिके प्रवाह कर पृथिवीको पवित्र करते मानों आकाशविर्ष अनेक रंग कर कमलोंका वन लगावते नगरमें प्रवेश करते भए तिनके रूपको देख नगर के सब लोक क्षोभको प्राप्त भए लोक परस्पर बतलावे है-अहो देखो ! अद्भुत रूप ऐसा आकार जगतमें दुर्लभ कबहु देखवे में न आवै यह कोई महापुरुष महा सुन्दर शोभायमान अपूर्व नर दोनों वाहू लम्बा ये आवै है। थन्य यह धीर्य, धन्य यह पराक्रम, धन्य यह रूप धन्य यह कांति धन्य यह दीप्ति, धन्य यह शांति धन्य यह निर्ममत्वता, यह कोई मनोहर पुराण है ऐसा और नाही जूडे प्रमाण धरती देखता जीव दया पालता शांतदृष्टि समाधान चित्त जैनका पति चला भावै
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