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________________ पन्ना-पुराण सहस्रभट धर्मके प्रसादत कुवेरकान्त सेठ भया । सबके नेत्रोंको प्रिय, धर्मविष जाकी बुद्धि सदा आसक्त है, पृथ्वीविर्षे विख्यात है नाम जाका, उदार पराक्रमी महा धनवान जाके अनेक सेवक जैसे पूर्णमासीका चन्द्रमा तैसा कातिधारी परम भोगोंका भोक्ता सर्व शास्त्र प्रवीण, पूर्व धर्मके प्रभावतें ऐसा भया बहुरि संसारसे विरक्त होय जिन दीक्षा श्रादरी संसार को पार भया तात जे साधुके आहारके समयसे पहिले आहार न करनेका नियम थारे ते हरिपेण चक्रवर्तीकी न्याई महा उत्सवको प्राप्त होय हैं, हरिषेण चक्रवर्ती ही व्रतके प्रभावकरि महा पुण्यको उपार्जन कर अत्यन्त लक्ष्मीका नाथ भया ऐसे ही जे सम्यकदृष्टि समाधान के धारी भव्य जीव मुके निकट जायकर एकबार भोजनका नियम करें हैं ते एक भुक्तिके प्रभावकर स्वर्ग विमानविष उपजै हैं जहां सदा प्रकाश है अर रात्रि दिवस नाहीं, निद्रा नाहीं, वहां सागरांपर्यंत अप्सरावोंके मध्य रमै हैं मोतिनिके हार रत्नोंके कड़े कटिसूत्र मुकुट वाजूबन्द इत्यादि आभूषण पहरें, जिनपर छत्र फिरें चमर दुरे ऐसे देवलोकके सुख भोग चक्रवादि पद पावै हैं, उत्तमव्रतोविर्षे आमक्त जे अणुव्रतके धारक श्रावक शरीरको विनाशीक जानकर शांत भया है हृदय जिनका अष्टमी चतुर्दशी का उपवास मन शुद्ध होय प्रोषध संयुकथाएँ हैं वे सौधर्मादि सोलहवें स्वर्गविष उपजै हैं, वहुरि मनुष्य होय भावनको तजे हैं, मुनित्रत के प्रभावकरि अहमिंद्रपद तथा मुक्तिपद पावै हैं । जे व्रत गुणशील तप कर मंडित हैं ते साधु जिनशासनके प्रसादकरि सर्व कर्म रहित होय सिद्धोंका पद पात्र हैं। जे तीनों कालविणे जिनेंद्रदेवकी स्तुति कर मन बचन काय कर नमस्कार करै हैं अर सुमेरु पर्वत सारिखे अचल मिथ्यास्वरूप पवनकर नहीं चले हैं, गुण रूप गहने पहरें शीलरूप सुगन्ध लगाए हैं सो कईएक भव उत्तमदेव उत्तम मनुष्यके सुख भोगकर परम स्थानको प्राप्त होय हैं। ये इन्द्रियनिके विषय जीवने जगामें अनन्तकाल भागे तिन विषयोंसे मोहित भया विरक्त भावको नहीं भजे है। यह बड़ा आश्चर्य है जो इन विषयोंको विषमिश्रित अन्न सभान जानकर पुरुषोत्तम कहिये चक्रवर्ती आदि उत्तम पुरुष भी सेवै हैं। संपारमें भ्रमते हुवे इस जीवके जो सम्यकत्व उपजे और एक भी नियम व्रत साधे तो यह मुक्तिा वीज है और जिन प्राणधारियोंके ए. भ. नियम नहीं वे पशु हैं अथवा फूटबलश हैं गुणरहित हैं। अर जे भव्य जीव संसार समुद्रको तिरा चाहे हैं ते प्रमादरहित होष गुण अर व्रतनिकारे पूर्व सदा नियमरूप रहें, जे मनुष्य कुबुद्धि खोटे कर्म नहीं तजै हैं अर व्रत नियमको नहीं भजे है ये जन्मके अन्धेकी न्याई अनन्तकाल भववनविषे भटक हैं । या भांति जे श्रीनन्तवीर्य कंवली वेई मए तीनलोकके चन्द्रमा तिनके वचनरुप किरणके प्रभावतें देव विद्याधर भूमिगोचरी मनुष्य तथा तिर्यंच सर्व ही आनन्दको प्राप्त भए । कई एक उत्तम मानव मुनि भए तथा श्रावक भए सम्यक्त्वको प्राप्त भए और कई एक उत्तम तिर्यंच भी सम्यकदृष्टि श्रायकः अणुव्रतधारी भए भर चतुरनिकायके देवोंमें कई एफ सम्यकदृष्टि भए कोंकि देवनि : व्रत नाहीं । .: अथानन्तर एक धर्मरथ नामा मु.ने रावणको कहते भए–'हे भद्र कहिये भव्यजीव ! तू मी अपनी शक्ति प्रमाण कछु नियम धारण कर, यह धर्मरत्नका द्वीप है अर भगवान केवली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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