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________________ चौदहा पव सिर निवाय सेवा कर हैं। स्वर्गमें मनवांछित भोग भोगकर महा लक्ष्मीवान ऊंचकुलमें जन्म पावें हैं, शुभ लक्षण सम्पूर्ण सर्व गुण मण्डित सर्वकलाप्रवीण देखनहारोंके मन और नेत्रोंको हरणहारी अमृत समान वचन बोलें आनन्दकी उपजाबनहारी जिनके परिणयेकी अभिलाषा चक्रवर्ती वलदेव पासुदेव तथा विद्याधरोंके अधिपति राखें, विजुरी समान है कांति जिनकी, कमल समान है पदन जिनका, सुन्दर कुण्डल आदि आभूषणको धारणहारी, सुन्दर वस्त्रोंकी पहरनहारी नरेंद्रकी राखी दिन भोजनतें होय हैं। जिनके मनर्वाछित अन्न धन होय है और अनेक सेवक नाना प्रकारको सेवा करें । जे दयावन्ती रात्रिविष भोजन न करें श्रीकांता सुप्रभा सुभद्रा लक्ष्मी तुल्य हवे ताते नर अथवा नारी नियमविष है चित्त जिनका ते निशिभोजनका त्याग करें। यह रात्रिभोजन अनेक कष्टका देनहारा है, रात्रिभोजनके त्यागविषै अति अल्प कष्ट है परन्तु याके फलकरि सुख अति उत्कृष्ट होय है तातै विवेकी यह व्रत आदरें, अपने कल्याणको कौन न वांछे, धर्म सो सुखकी उत्पत्तिका मूल है और अधर्म दुःखका मून है ऐसा जानकर धर्मको भजो, अधर्मको नजो। यह वार्ता लोकवि समस्त बालगोपाल जाने हैं जो धर्मसे सुख होय है अर अधर्मकरि दुःख होय है । धर्मका माहात्म्य देखो जाकरि देवलोकके चये उत्तम मनुष्य होय हैं, जलस्थलके उपजे जे रत्न तिनके स्वामी अर जगतकी मायासे उदास परन्तु कैएक दिनतक महाविभूतिके धनी होय गृहवास भोगे हैं। जिनके स्वर्ण रत्न वस्त्र धान्यनिके अनेक भण्डार हैं जिनके विभवकी बड़े २ सामन्त नानाप्रकारके आयुधोंके धारक रक्षा करें तिनके बहुत हाथी घोड़े रथ पयादे वहुत गाय भैंस अनेक देश ग्राम नगर मनके हरनहारे पांच इन्द्रियों के विषय पर हंसनीकीसी चाल चलें अति सुन्दर शुभ लक्षण मधुर शब्द नेत्रों को प्रिय मनोहर चेष्टाकी धरणहारी नानाप्रकार आभूषणकी धरणहारी स्त्री होय हैं । सकल सुखका मूल जो धर्म है ताहि कैयक मूर्ख जाने ही नाहीं तातै तिनके धर्मका यत्न नहीं पर कैएक मनुष्य सुनकर जान हैं जो धर्म मला है परन्तु पापकर्मके वशतें अकार्यविष प्रवरतें हैं, सुखका उपाय जो धर्म ताहि नाही सेवे हैं पर कैएक अशुभ कर्मक उपशान्त होते उत्तम चेटाके घर पहारे श्रीगुरुके निपट जाय धर्मका स्वरूप उद्यमी होय पूछ हैं। वे श्रीगुरुके वचन प्रभावों स्तुका रहस्य जानकर श्रेष्ठ आचरणको आचरौं है । यह नियम जे धर्मात्मा बुद्धिमान पापक्रियाते रहित होयकर करे हैं ते महा गुणवन्त स्वर्गविणे अद्भुत सुख भोगे हैं परम्पराय मोक्ष पावै हैं। जे मुनिराजोंको निरन्तर आहार देय हैं अर जिनके ऐसा नियम है कि मुनिके आहारका समग टार भोजन करें, पहिले न करें वे धन्य हैं, तिनके दर्शनकी अभिलाषा देव राखे हैं, दानके प्रभाव करि मनुष्य इन्द्रका पद पावै अथवा मनवांछित सुखका भोक्ता इंद्रके बरावरके देव होय हैं जैसे बटका वीज अल्प है सो वड़ा वृक्ष होय परणवै है तैसे दान तप अन्य भीमा फलके दाता हैं सहस्रभट सुभटने यह व्रत लिया हुता कि मुनिके आहारकी बेला उलंघकर भोजन करूंगा सो एक दिन ऋद्धिके थारी मुनि प्रहार को आए सो निरन्तराय पाहार भया तब रत्नवृष्टि आदि पंचाश्चर्य सुभटके घर भए । बह २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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