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तेइसवा पर्व से नमस्कार करने योग्य महारमणीक जे तीर्थंकरोंके कल्याणक स्थानक तिनकी रत्नोंके समूहसे यह राजा पूजा करता भया । गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहैं हैं - हे भव्यजीव ! दशरथ मारिखे जीव परभवमें महा धर्मको उपार्जनकर यति मनोज्ञ देवलोककी लक्ष्मी पायकर या लोकमें नरेन्द्र भए हैं, महाराज ऋद्धिके भोक्ता सूर्य समान दशों दिशाविषै है प्रकाश जिनका ॥ इति श्रीरविशेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वाचनिकानि राजा कौशलका महात्म्य र तिनके वंशविषै राजा दशरथकी उत्पत्तिका कथन कान करने वाला वाईसवां पर्व पूर्ण भया ।। २२ ।।
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अथानन्तर एक दिन रजा दशरथ महा तेज प्रताप संयुक्त सभामें विराजते हुते । कैसे हैं राजा ९ जिनेन्द्रकी कथा में ग्रासक्त है मन जिनका और सुरेन्द्र कासा है विभव जिनका तासमय अपने शरीर के तेजकरि आकाशवि उद्योत करते नारद आए । तब दूरही से नारदको देखकर राजा उठ कर सन्मुख गए । बडे आदरसे नारदको ल्याय सिंहासन पर विराजमान किये, राजा ने नारदकी कुशल पूछी, नारदने कही जिनेन्द्रदेव के प्रसादकरि कुशल हैं । बहुरि नारदने राजाकी कुशल पूछी राज ने कही देव गुरु धर्म प्रसादकर कुशल है । बहुरि राजाने पूली- हे प्रभो ! आप कौन स्थानक से आए, इन दिनोंमें कहां कहां विहार किया, क्या देखा ? क्या सुना तुमसे अढाई द्वीपमें कोई स्थानक अगोचरं नहीं | तब नारद कहते भए, कैसे हैं नारद ? जिनेन्द्रचन्द्रके चरित्र देखकर उपजा है परम हर्ष जिनके, हे राजन् ! मैं महा विदेह क्षेत्रविषै गया हुता कैसा है वह क्षेत्र ? उत्तम जीवोंसे भरा है, जहां ठौर ठौर श्रीजिनराजके मंदिर पर ठौर ठौर महामुनि विराजे हैं जहां धर्मका बडा उद्योत है । श्रीतीर्थकर देव चक्रवर्ती बलदेव वासुदेव प्रतिवासुदेवादि उपजे हैं तहां श्रीसीमंधर स्वामीका मैंने पुंडरीकनी नगरीमें तप कल्याणक देखा । कैसी है पुंडरीकनी नमरी ? नानाप्रकार के रत्नोंके जे महल तिनके तेजसे प्रकाशरूप है पर सीमंधर स्वामीके तप कल्याणकविषै नानाप्रकारके देवोंका आगमन भया तिनके भांति भांति के विमान ध्वजा र छत्रादिसे महाशोभित अर नाना प्रकार के जे बाहन तिनकरि नगरी पूर्ण देखी अर जैसा श्रीमुनिसुव्रतनाथका सुमेरुविषै जन्माभिषेकका उत्सब हम सुने हैं तैसा श्रीसीमंधर स्वामी के जन्माभिषेकका उत्सव मैंने सुना अर तप कल्याणक तो मैंने प्रत्यक्ष ही देखा अर नानाप्रकार के रत्नोंसे जडित जिनमंदिर देखे जहां महा मनोहर भगवान के बडे बडे बिम्ब विराजे हैं भर विधिपूर्वक निरंतर पूजा होय है घर विदेह मैं सुमेरु पर्वत आया सुमेरुकी प्रदक्षिणाकर सुमेरुके वन तह भगवानके जे अकृत्रिम चैत्यालय तिनका दर्शन किया— हे राजन् ! नन्दनवनके चेत्यालय नानाप्रकारके रत्नोंसे जडे अतिरमणीक मैंने देखे। जहां स्वर्णके पीत प्रति देदीप्यमान हैं सुन्दर हैं मोतियोंके हार पर तोरण जहां, जिनमंदिर देखते सूर्यका मंदिर कहा ? श्रर चैत्यालयांकी वैडूर्य मणिमई मति देखी तिनमें गज सिंहादिरूप अनेक चित्राम मढे हैं अर जहां देव देवी संगीत शास्त्ररूप नृत्य कर रहे हैं अर देवारण्यविषै चैत्यालय जहां मैंने जिन प्रतिमा का दर्शन किया और कुलाचलोके शिखिरविषै जिनेन्द्रके चैत्यालय मैंने बंदे देखे । या भांति
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