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पेतीसर्वा पवं
२६५ पंचभरत पंच ऐरावत पंच विदेह ये पन्द्रह कर्मभूमि तिनसे जे तीर्थकर भए अब होवेंगे तिन सबको हमारा नमस्कार होह, संसार समुद्रसूतिरें ऐसे श्रीमुनि सुव्रतनाथके ताई नमस्कार होहु, तीन लोकमें जिनका यश प्रकाश करे है, या भांति स्तुति कर अष्टांग दण्डवतकर ब्राह्मण स्त्री सहित श्रीरामके अवलोकनको गए।
मार्गमें बडे २ मंदिर महाउद्योतरूप ब्राह्मणीको दिखाए अर कहना भया-ये कुन्दन के पुष्प समान उज्ज्वल सर्व कामना पूर्ण नगरीके मध्य रामके मन्दिर हैं, जिनकर यह नगरी स्वर्ग समान शोभे है । या भांति वार्ता करता ब्राह्मण राजमन्दिरमें गया । सो दूर होते लक्ष्मण को देख व्याकुलताको प्राप्त भया, चित्तमें चितारे है-वह श्याम सुन्दर नीलकमल समान प्रभा जाकी, मैं अज्ञानी दुष्ट वचननिकरि दुखाया सो मोहि त्रास दीनी । पापिनी जिह्वा महादुष्टिनी काननको कटुक वचन भाषे, अब कहा करू? कहां जाऊ? पृथ्वीके छिद्र में वै; अब मोहि शरण कौनका १ जो मैं यह जानता अक ये यहां ही नगगे बसाए रहे हैं तो मैं देश त्यागकर उत्तर दिशाको चला जाता, या भांति विकल्परूप होय ब्राह्मणी को तज ब्राह्मण भागा सो लक्ष्मण ने देखा तब हंसकर रामको कहा वह ब्राह्मण आया है अर मृगकी नाई व्याकुल होय मोहि देख भागे है तब राम बोले, याको विश्वास उपजाय शीघ्र लावो। तब सेवकजन दौड़े, दिलासा देय लाए डिगता पर कांपता आया, निकट आय भय तज दोऊ भाइनके आगे भेट मेल स्वस्ति ऐसा शब्द कहता भया अर अतिस्तवन पढता भया तब राम बोले-हे द्विज ! तैं हमको अपमानकर अपने घरते काढ़े हुते अब काहे पूजे है। तब विप्र बोला-हे देव, तुम प्रच्छन्न महेश्वर हो, मैं अज्ञानते न जाने तातै अनादर किया जैसे भस्मते दबी अग्नि जानी न जाय, हे जगन्नाथ, या लोक की यही रीति है, थनवानको पूजिए है। सूर्य शीतऋतु तापरहित होय है सो तासे कोई नाही शंके है, अब मैं जाना तुम पुरुषोत्तम हो । हे पद्मलोचन ! ये लोक द्रव्यको पूजे हैं, पुरुषको नाहीं पूजे हैं। जो अर्थकर युक्त होय ताहि लौकिकजन माने हैं पर परम सज्जन है अर धनरहित. है तो ताहि निप्रयोजन जन जान न माने हैं। तब राम वोले, हे विप्र ! जाके अर्थ ताके मित्र जाके अर्थ ताके भाई जाके अर्थ सोई पंडित, अर्थ बिना न मित्र न सहोदर जो अर्थकर संयुक्त है, ताके परजन हू निज होय जाय हैं अर धन वही जो थर्मकरयुक्त अर धर्म वही जो दयाकर युक्त भर दया वही जहां मांस का भोजन त्याग जब सब जीवनिका मांस तजा, तब अभक्ष्यका स्याग कहिए ताकै और त्याग सहज ही होय, मांसके त्याग बिना और त्याग शोभे नाहीं। ये पचन रामके सुन विप्र प्रसन्न भया पर कहता भया-हे देव ! जो तुम सारिखे पुरुषनिको महापुरुष पूजिए हैं तिनका भी मूढ लोक अनादर करे हैं । आगे सनत्कुमार चक्रवर्ती भए । बड़ी ऋद्धिके धारी महारूपवान जिनका रूप देव देखने आए, सो मुनि होयकर आह रको ग्रामादिकविषै गए । महाआचार प्रवीण सो निरंतराय भिक्षाको न प्राप्त होते भए, एक दिवस विजयपुर नाम नगरविषै एक निर्धन मनुष्यके आहार लिया, याके पंच आश्चर्य भए । हे प्रभो ! मैं मंद. भाग्य तुम सारिखे पुरुषनिका आदर न किया सो अव मेरा मन पश्चातापरूप अग्निकरि तपे है,
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