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पग-पुराण धर्मरूप रत्न तज विषयरूप कांचका खंड अंगीक र किया। जे सर्वभक्षी दिवस रात्रि माहारी, अबती, कुशील तिनकी सेवा करी । भोजनको अतिथि आवै अर जो निर्बुद्धि अपने विभव प्रमाण अन्नपानादिक न दे ताके धर्म नाहीं, अतिथि पदका अर्थ तिथि कहिए उत्सवके दिन तिनविष उत्सव तजै जाके तिथि कहिए विकार नाही अर सर्वथा निस्पृह घररहित साधु सो अतिथि कहिये। जिनके भाजन नाहीं, कर ही पात्र हैं वे निग्रंथ आप तिरें औरनिको तारें मापने शरीरमें हु निस्पृह काहू वस्तुविष जिनका लोभ नाहीं । ते निरपग्रही मुक्तिके कारण जे दस लक्षण धर्म तिनकर शोभित है या भांति ब्राह्मणने ब्राह्मणीकू थर्मका स्वरूप कहा अर सुशमी नामा ब्राह्मणी मिथ्यात्वरहित शोभित होती भई जैसे चंद्रमाके रोहिणी शोभे पर बुधके भरणी सोहै तैसे कपिलके मुशमी भई । ब्राह्मण ब्राह्मणीको बाही गुरुके निकट ले आया, जाके निकट आप प्रत लिये हुते सो स्त्रीको हू श्रावकके व्रत दिवाये। कपिलको जिनधर्मके विषय अनुरागी जान और हू अनेक ब्राह्मण समभाव थारते भए । मुनिसुव्रतनाथका मत पायकर अनेक सुबुद्धि श्रावक श्राविका मए पर जे कर्मनिके भारकर संयुक्त मानकर ऊंचा है मस्तक जिनका, वे प्रमादी जीव थोडे ही प्रायविणे पापकर घोर नरकविष जाय हैं। कैयक उत्तम ब्राह्मण सर्व संगका परित्यागकर मुनि भए, वैराग्य कर पूर्ण मनविर्ष ऐसा विचार किया
यह जिनेन्द्रका मार्ग अब तक अन्य जन्ममें न पाया महा निर्मल अब पाया, ध्यानरूप अग्निविणे कर्मरूप सामिग्री भाव घृतमहित होम करेंगे सो जिनके परम वैराग्य उदय भया ते मुनि ही भए अर कपिल ब्राह्मण महा क्रियावान श्रावक भया, एक दिवस ब्राह्मणीको धर्मकी अभिलापिनी जान कहता भया–हे प्रिये ! श्रीरामको देखनेको रामपुरी काहे न चालें, कैसे हैं राम महापराक्रमी निर्मल है चेष्टा जिनकी, अर कमल सारिखे हैं नेत्र जिनके, सर्व जीवनिके दयालु भव्य जीवनिपर है वात्सल्य जिनका, जे प्राणी आशामें तत्पर नित्य उपायविणे है मन जिनक', दारिद्ररूप समुद्र में मग्न, उदर पूर्णाविषं असमर्थ, तिनको दारिद्ररूप समुद्रते पार उतार परमसम्पदाको प्राप्त करे हैं या भांति कीति जिनकी पृथ्वीमें फैल रही है महामानन्दकी करणहारी तात हे प्रिये उठ भेंट लेकर चलें अर मैं सुकुमार बालकको कांधे लूंगा। ऐसा ब्राह्मणीको कह तैसे ही कर दोऊ हर्णके भरे उज्ज्वल भेषकर शोभित रामपुरीको चाले । सो उनको मार्गमें नाग मार दृष्टि आए, बहुरि वितर विकराल वदन अट्टहास करते दृष्टि आए। इत्यादि भयानक रूप देख ये दोऊ निकंप हृदय होयकर या भांति भगवानकी स्तुति करते भए, श्रीजिनेश्वरदेवके ताई निरंतर मन वचन कायकर नमस्कार होहु । कैसे हैं जिनवर १ त्रैलोक्यकर वंदनीक हैं। संसारकीचसे पार उतारे हैं, परम कल्याणके देनहारे हैं, यह स्तुति पढते ये दोऊ चले जावें हैं इनको जिनभक्त जान यक्ष शांत होगए, ये दोऊ जिनालयमें गए, नमस्कार होहु जिनमदिरको। ऐसा कह दोऊ हाथ जोड कर चैत्यालयकी प्रदक्षिणा दई अर अंदर जाय स्तोत्र पढते भए-हे नाथ ! महाकुगतिका दाता मिध्यामार्ग ताहि तजकर बहुत दिनोंमें विहारा शरण गहा। चौबीस तीर्थकर भतीत कालके, अर चौबीस वर्तमान कालके पर चौबीस अनागत कालके, तिनको मैं बंदू हमर
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