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पैतीस पथ
०६३
बंदी अरिहंत विंब विराजे हैं और जहां भव्यजीव सामायिक स्तवन आदि करे हैं और जो नमोकार मंत्र भाव सहित पढे हैं सो भीतर प्रवेश कर सके हैं। जो पुरुष अणुव्रतका धारी गुणशीलसे शोभित है ताको राम परम प्रीतिकर वांछे हैं। यह वचन यक्षिनी के अमृत समान सुनकर ब्राह्मण परम हर्षको प्राप्त भया । धन आगमका उपाय पाया, यक्षनीकी बहुत स्तुति करी, रोमांच कर मंडित भया है सर्व श्रंग जाका सो चारित्रशूर नामा मुनिके निकट जाय हाथ जोड नमस्कार कर श्रावककी क्रियाका भेद पूछता भया । तब मुनिने श्रावकका धर्म इसे सुनाया, चारों अनुयोगका रहस्य बताया सो ब्राह्मण धर्मका रहस्य जान मुनिकी स्तुति करता भया । हे नाथ ! तिहारे उपदेशते मेरे ज्ञान दृष्टि भई जैसे तृषावानको शीतल जल अर ग्रीष्मके तापकर तप्तायमान पंथीको छाया श्रर क्षुधावानको मिष्टान्न र रोगीको औषधि मिले, तैसे कुमार्ग में प्रतिपन्न जो मैं सो मोहि तिहारा उपदेश रसायन मिला जैसे समुद्र के मध्य डूबतेको जहाज मिले । मैं यह जैनका मार्ग सर्व दुःखनिका दूर करणहारा तिहारे प्रसादकरि पाया जो अविवेकिनिको दुर्लभ है, तीनलीक में मेरे तुम समान कोऊ हितू नाहीं जिनकर ऐसा जिनधर्म पाया । ऐसा कहकर मुनिके चरणारविंदको नमस्कार कर ब्राह्मण अपने घर गया । श्रति हर्षित, फूल रहे हैं नेत्र जाके स्त्री कहता भया, हे प्रिये, मैने आज गुरुके निकट अद्भुत जिनधर्म सुना हैं जो तेरे बापने अथवा मेरे बापने अथवा पिके पिताने भी न सुना अर हे ब्राह्मणी, मैंने एक अद्भुत वन देखा तामें एक महामनोग्य नगरी देखी जाहि देखे आश्चर्य उपजे परंतु मेरे गुरुके उपदेशते आश्चर्य नहीं उपजे है । तब ब्राह्मणी ने कही, हे विप्र, तँ कहा देखा और कहा सुना सो कहो तब ब्राह्मण कही, हे प्रिये, मैं हर्ष थकी कहने समर्थ नाहीं, तब बहुत आदर कर ब्राह्मणीने बारम्बार पूछा तब ब्राह्मण कही- हे प्रिये, मैं काष्ठके अर्थ वनविषै गया । सो वनमें एक महा रमणीक रामपुरी देखी ता नगरी के समीप उद्यानविषै एक नारी सुन्दरी देखी, सो वह कोई देवता होयगी महा मिष्टवादिनी, मैंने पूछा या नगरी कोनकी है तब वाने कही यह रामपुरी है, जहां राजा राम श्रावकनिको मनवांचित धन देते हैं । तब मैं मुनिप जाय जैन वचन सुने सो मेरा श्रात्मा बहुत तृप्त भया, मिथ्यादृष्टि कर मेरा श्रात्मा आतापयुक्त हुता सो श्राप गया । धर्म को पायकर मुनिराज मुक्ति के श्रभिलाषी सर्व परिग्रह तज महा तप करें सो वह अरिहंतका धर्म त्रैलोक्यविषै एक महानिधि मैं पाया। ये वहिर्मुख जीव वृथा क्लेश करे हैं मुनि थक्की जैसा जिनधर्मका स्वरूप सुना वैसा ब्राह्मणीको कहा, कैसा है जिनधर्मका स्वरूप ? उज्ज्वल है अर कैसा है ब्राह्मण निर्मल है चित्त जाका तब सुनकर कहती भई मैं भी तिहारे प्रसादकरि जिनधर्मकी रुचि पाई घर जैसे कोई विष फलका अर्थी महानिधि पावे, वैसे ही तुम काष्ठादिकके अर्थी धर्म इच्छाते रहित श्री अरिहंत का धर्म रसायन पाया अबतक तुमने धर्म न जाना । अपने आंगन विषै आए सन्पुरुष तिनका निरादर किया, उपत्रासादिकरि खेदखन दिगम्बर तिनको कबहु आहार न दिया, इन्द्रादिक कर बन्दनीक जे अरिहंत देव तिनको तजकर ज्योतषी व्यन्तरादिकको प्रणाम किया । जीव दयारूप जिनधर्म अमृत तज अज्ञान योगते पापरूप विषका सेवन किया । मनुष्य देहरूप रत्नदीप पाय साधुनि कर परखा
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