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पन पुराण सो दूर हीते दोऊ भाइनिको महारूपवान देख अवधि कर जानता भया-जो ये बलभद्र नारायण हैं तब बह इनके प्रभाव कर अत्यंत वास्सन्यरूप भया । क्षणमात्रमें महामनोग्य नगरी निरमापी तहां सुखसे सोते हुए प्रभात सुन्दर गीतोंके शब्दनिकर जागे। रत्न जडित सेजपर आपको देखा भर मंदिर महामनोहर बहुत खणका अति उज्ज्वल अर सम्पूर्ण साभिग्री कर पूर्ण भर सेवक सुन्दर बहुत आदरके करनहारे नगरमें रमणीक शब्द कोट दरबाजेनिकर शोभायमान ते पुरुपोत्तम महानुभाव तिनका चित्त ऐसे नगरको तत्काल देख आश्चर्यको न प्राप्त भया । यह शुद्र पुरुषनिकी चेष्टा है जो अपूर्व वस्तु देख आश्चर्य को प्राप्त होंय । समस्त वस्तु कर मंडित वह नगर वहां वे सुन्दर चेटाके धारक निवास करते भए, मानों ये देव ही हैं यक्षाधिपति रामके अर्थ नगरी रची। सातै पृथिवीपर रामपुरी कहाई । ता नगरीविष सुभट मंत्री द्वारपाल नगरके लोग अयोध्या समान होते भए।
राजा श्रेणिक गौतमस्वामीको पूछे हैं-हे प्रभो ! ये तो देवकृत नगरीविष विराजै अर ब्रामणकी कहा पात सी कहो । तब गणधर बोले-वह ब्राह्मण अन्य दिन दांतला हाथमें लेय वनमें गया, लकडी ढढते अकस्मात् ऊंचे नेत्र किये। निकट ही सुन्दर नगर देखकर भावयंको प्राप्त भया । नानाप्रकारके रंगकी ध्वजा उन कर शोभित शरदके मेघ समान सुन्दर महिल देखे पर एक राजमहल महाउज्ज्वल मानों कैलाशका बालक है सो ऐसा देखकर मनमें विचारता मया । जो यह अटवी मृगनिते भरी जहां मैं लकडी लेने निरंतर आवता हुता सो यहां रत्नाचल समान सुंदर मंदिरनिते संयुक्त नगरी कहांसूबसी ? सरोवर जलके भरे कमलनिकरि शोभित दीखे हैं जो मैं अब तक कभी न देखी, उद्यान महामनोहर जहां चतुर जन क्रीडा करते दीखे हैं भर देवालय महाध्वजानिकर संयुक्त शोभे हैं अर हाथी घोडे गाय भैंस तिनके समूह दृष्टि भावे हैं। घंटादिकके शब्द होय रहे है। यह नगरी स्वर्गते आई है अथवा पातालते निसरी हे, कोऊ महाभाग्यके निमित्त, यह स्वप्न है अक प्रत्यक्ष है अक देवमाया है अक गन्धोंका नगर है। भक मैं पित्तकर व्याकुल भया हूं याके निकटवर्ती जो मैं सो मेरे मत्युका चिह्न दीखे है, ऐसा विचार विषादको प्राप्त भया। सो एक स्त्री नानाप्रकारके आभरण पहरे देखी ताके निकट जाय पूछता भया । हे भद्र ! यह कौनकी पुरी है तब वह कहती भई-यह रामकी पुरी है तूने कहा न सुनी १ जहां राम राजा जाके लक्ष्मण भाई, सीता स्त्री अर नगरके मध्य यह बडा मन्दिर है शरेदके मेव समान उज्ज्वल, जहां वह पुरुषोत्तम विराजे हैं। कैसा है पुरुषोत्तम लोकवि दुर्लभ है दर्शन जाका सो ताने मनवांछित द्रव्यके दानकरि सब दरिद्री लोक राजानिके समान किये, तब ब्राह्मण बोला हे सुन्दरी ! कौन उपाय कर याहि देखू सो तू कह । ऐसे काष्ठका मार डारकर हाथ जोड ताके पायन पडा । वह सुमाया नामा यक्षिनी कृपाकर कहती भई, हे विप्र! या नगरीके तीन द्वार हैं । जन देव भी प्रवेश न करसके, बडे बडे योथा रक्षक बैठे हैं। रात्रि में जागे हैं जिनके मुख सिंह गम व्याघ्र तुन्य हैं तिनकरि भयको मनुष्य प्राप्त होय हैं, यह पूर्व द्वार है जाके निकट बड़े भगवानके मंदिर हैं। मणि के तोरणकरि मनोग्य तिनमें इंद्र कर
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