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२.
तीसा पर्ण गांठ दिये लांची डाढी यज्ञोपवीत पहिरे उंछवृत्ति कहिये अन्नको काटकर लेगये पीछे खेतनते अन्न कण बीन लावे, या भांति है आजीविका जाकी, सो इनको बैठा देख वक्र मुखकर बामणीको दुर्वचन कहता भया-हे पापिनी ! इनको घरमें काहे प्रवेश दिया, मैं आज तोहि गायनिके मठन में बांधूगा। देख इन निर्लज्ज ढीठ पुरुष धूरकर धूसरोंने मेरा अग्निहोत्रका स्थान मलिन किया यह वचन सुन सीता रामते कहती भई-हे प्रभो या क्रोधीके घरमें न रहना वनमें चलिये जहां नाना प्रकारके पुष्प फल तिनकर मंडित वृक्ष शोभे हैं । निर्मल जलके भरे सरोवर हैं तिनमें कमल फूल रहे हैं अर मृग अपनी इच्छासे क्रीडा करते हैं तहां ऐसे दुष्ट पुरुषनिके कठोर वचन न सुनिये है, यद्यपि यह देश थनसे पूर्ण है अर स्वर्ग सारिखा सुन्दर है परंतु लोग महा कठोर हैं और ग्रामीजन विशेष कठोर ही होय हैं सो विपके रूखे वचन सुन ग्रामके सकल लोक पाए, इन भाइनिका देवनि समान रूप देख मोहित भए । ब्राह्मणको एकान्तमें लेजाय लोक समझावते भए । ये यहां एक रात्रि रहे हैं तेरा कहा उजाड है ये गुणवान विनयवान रूपवान पुरुषोत्तम हैं तब द्विज सबसे लडा भर सबसे कहा, तुम मेरे घर काहे पाए, परे जाहु अर मूर्खा इसपर क्रोधकराया जैसे श्वान गनपर श्रावे, इनको कहता भया रे अपवित्र हो मेरे घरते निकसो इत्यादि कुवचन सुन लक्ष्मण कोप भए, सा दुर्जनके पांव ऊचे कर नाडि नीचेकर भ्रमाया भूमिपर पछाडने लगा तब श्रीराम परमदयालु ताहि मने किया-हे भाई यह कहा ? ऐसे दीनको मारनेकरि कहा ? याहि छोड देहु यांके मारवते बड़ा अपयश है । जिनशासनमें शूरवीरको एते न मारने-यति ब्राह्मण गाय पशु स्त्री बालक वृद्ध ये दोष संयुक्त होंय तो भी हनने योग्य नाहीं। या भांति भाईको समझाया, विन छुडाया अर आप लक्ष्मणको आगे कर सीतासहित कुटीते निकसे, आप जानकीसे कहे हैं-हे प्रिये विकार है नीचकी संगतिको जिवकर कर वचन मुनिये मनमें विकारका कारण महापुरुषनिकर त्याज्य कर वचन सुनिये महा विषम वनमें वृक्षनिके नीचे वास भला आहारादिक विना प्राण जावें तो भले परंतु दुर्जनके घर क्षण एक रहना योग्य नाहीं । नदिनिके तटविणे पर्वतनिकी कंदराविणे रहेंगे। बहुरि ऐसे दुष्ट के घर न आयेंगे । या भांति दुष्टके संगको निंदते ग्रामसे निकसे राम वनको गये, वहां वर्षा समय आय प्राप्त भया । समस्त आकाशको श्याम करता हुवा अर अपनी गर्जना कर शब्द रूप करी है पर्वतकी गुफा गाजे है, ग्रह नक्षत्र तारानिके समूहको ढांककर शब्दसहित बिजुलीके उद्योतकर मानों अंबर हंसे है, मेघ पटल ग्रीष्मके तापको निवारकर पंथिनि को बिजुरीरूप अंगुरिनिकरि डरावता संता गाजे है। श्याम मेघ आकाशमें अंधकार करता संता जलकी धाराकर मानों सीताको स्नान करावे है जैसे गज लक्ष्मीको म्न न करावे । ते दोऊ वीर वनमें एक वडा वटका वृक्ष ताके डाहला घरके समान तहां विराजे, एक दंभकर्ण नामा यक्ष उस बटमें रहता हुता सो इनको मह तेजस्वी जानकर अपने स्वामी को नमस्कार कर कहता भया हे नाथ, कोई स्वर्गते पाए हैं मेरे स्थानकविणे तिष्ठे हैं । जिनने अपने तेत्रकरि मोहि स्थानते दर किया है, वहां मैं जाय न सक हूं। तब यक्षके वचन सुनकर यक्षाथिपति अपने देवनिसहित बटका पच जहां राम लक्ष्मण हुने तहाँ आया, महाविभव संयुक्त वनक्रीडावि आसक्त नूतन है नाम जाका
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