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पद्म-पुराण
तब मुनि कहते भए - हे शत्रुघ्न ! जिन आज्ञा सिवाय अधिक रहना उचित नाहीं, यह चतुर्थकाल धर्मके उद्योतका कारण है यामें मुनीन्द्रका धर्म भव्य जीव धारें हैं जिन आज्ञा पालै हैं महामुनिनिके केवलज्ञान प्रगट होय है । मुनिसुव्रतनाथ तो मुक्त भए अब नमि, नेमि, पार्श्व, महावीर चार तीर्थंकर और होवेंगे बहुरि पंचमकाल जाहि दुखमा काल कड़िये सो धर्मकी न्यूनतारूप प्रबरतेगा, तासमय पाखण्डी जीवनिकर जिनशासन अति ऊंचा है तो हू आच्छादित होगा जैसे रजकर सूर्यका बिम्व श्राच्छादित होय, पाखण्डी निर्दई दया धर्मको लोपकर हिंसा का मार्ग प्रवर्तन करेंगे समय मा समान ग्राम पर प्रेत समान लोक कुचेष्टा के करणहारे होवेंगे, महाकुधर्म में प्रवीण क्रूर चोर पाखण्डी दुष्टजीव तिनकर पृथिवी पीडित होयगी, किसा दुखी होवेंगे, प्रजा निर्धन होयगी महा हिंसक जीव परजीवनिके घ तक होगे निरंतर हिंसाकी चढवारी होयगी पुत्र माता पिताकी आज्ञासे विमुख होगे यर माता पिता हू स्नेवरहित होयेंगे अर कलिकालमें राजा लुटेरे होवेंगे कोई सुखी नजर न आवेगा कहिवेके सुखी वे पापचित्त दुर्गविकी दायक कुकथा कर परस्पर पाप उपजायेंगे । हे शत्रुघ्न ! कलिकाल में कपायकी बहुलता होवेगी र अतिशय समस्त विलय जायेंगे चारण मुनि देव विद्याधरनिका याचना न होयगा । अज्ञानी लोक नग्नमुद्रा धारक मुनिनिको देख निन्दा करेंगे, मलिनचित्त मुढजन अयोग्यको योग्य जानेंगे जैसे पतंग दीपककी शिखा में पडे तैसे अज्ञानी पपपंथमें पड दुर्गतिके दुख भोगेंग अर जे महा शांत स्वभाव तिनकी दुष्ट निंदा करेंगे, विषयी जीवनि को भक्तिकर पूजगे, दीन अनाथ जीवनको दया भावकर कोई न देवेगा अर मायाचारी दुराचारिनिको लोक देवेंगे सो था जायगा जैसे शिला में बीज बोय निरंतर सीचे तो हूक कार्यकरी नाहीं, तैसे कुशील रुपनको विनय afteकर दीया कल्याणकारी नाहीं, जो कोई मुनिनिकी यज्ञ करें है अर मिथ्या मार्गियोंको भक्तिकर पूजे है सो मलयागिरिचंदनको तजकर कंटक को अंगीकार करें हैं
सा जानकर हे वत्स ! तू दान पूजाकर जन्म कृतार्थकर, गृहस्थीको दान पूजा ही कल्याणकारी है पर समस्त मथुरा के लोक धर्ममें तत्पर होवो, दया पालो, साधर्मीयोंसे वात्सल्य धारो, जिनशासनकी प्रभावना करो, घर घर जिनबिम्ब थापो, पूजा अभिषेककी प्रवृत्ति करो जाकर सब शांति हो, जो जिनधर्मका आराधन न करेगा पर जाके घर में जिनपूजा न होगी, दान न होवेगा ताहि आपदा पीडेगी जैसे मृगको व्याघ्री भखे तैसे धर्मरहितको मरी भखेगी अंगुष्ठ प्रमाण ह जिनेन्द्रकी प्रतिमा जिसके विराजेगी उसके घरमेंसे मी यूं भाजेगी जैसे गरुडके भगसे नागिनी भागे । ये वचन मुनिनिके सुन शत्रुघ्नने कही - हे प्रभो ! जो श्राप याज्ञा करी त्यों ही लोक
तेंगे।
अथानन्तर मुनि श्राकाश मार्ग विहार कर अनेक निर्वाण भूमि बंदकर सीताके घर श्राहारको आये, कैसे हैं मुनि ? तप ही है धन जिनके सीता महा हर्षको प्राप्त होय श्रद्धा आदि गुणोंकर मण्डित परम छानकर विधिपूर्वक पारणा करावती भई, मुनि आहार लेय आकाशके मार्ग विहार कर गये, शत्रुघ्नने नगरीके बाहिर अर भीतर अनेक जिनमन्दिर कराए, घर घर जिन
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