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पद्म-खुराण कहा आप लंकाकी ओर जानेका वृत्तांत कहा पर कही मैं लंका होय कायंकर आऊ हूं तुम किहकन्धापुर जावो रामकी सेवा को ऐसा कहिकर हनूमान आकाशके मार्ग लंकाकू चाले जैसे स्वर्गलोकको देव जाय अर राजा महेंद्र राणीसहित तथा अपने प्रसन्नीति पुत्र सहित अंजनीपुत्रीके गया, अंजनीको माता पिता अर भाईका मिलाप भया सो अति हर्षित भई बहुरि महेंद्र किहकंधापुर आए सो राजा सुग्रीव विराधित आदि सन्मुख गए श्रीरामके निकट लाए राम बहुत आदरसे मिले, जे राम सारिखे महंत पुरुष महातेज प्रतापरूप निर्मलचित्त है अर जिनने पूर्वजन्म विर्षे दान व्रत तप आदि पुण्य उपार्जे हैं तिनकी देव विद्याधर भूमिगोचरी सही सेवा करें। जे महा गर्वबंत बलवंत पुरुष हैं ते सब तिनके वश होवें तात सर्व प्रकार अपने मनको जीत सार्म में यत्नकर हे भव्यजीव हो ! ता सत्कर्मके फलकर सूर्य समान दीप्तिक प्राप्त होहु ॥ इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापटपुगण संस्कृत ग्रन्थ ताकी भाषा वचनिकाविणे महेन्द्र का अर अंजना
का बहुरि हनूमान का श्रीरामके निकट आवनेका वर्णन करने वाला पचासवां पर्व पूर्ण भया ॥५०॥
. अथानन्तर हनूमान आकाशविर्ष विमानमैं बैठे जाय हैं अर मार्गमें दधिमुख नामा द्वीप आया तामें दधिमुख नामा नगर जहां दधि समान उज्ज ल मन्दिर सुन्दर सुवरणके तोरण काली घटाममान सघन उद्यान पुरुषनिकरि युक्त फटिक मणि समान उज्ज्वल जलकी भरी वापिका सोपाननिकर शोभित कमलादिक कर भरी । गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसू कहे हैं-हे राजन्, या नगरसे दूर वन तहां तृण बेल वृक्ष कांटनिके समूह सूके वृक्ष दुष्ट सिंहादिक जीवनिक नाद महा भयानक प्रचण्ड पवन जाकरि वृक्ष गिः पडे, सूक गये हैं सरोवर जहां अर गृद्ध उल्लूक आदि दष्ट पक्षी विधरैं ता वनविष दोय चारणमुनि अष्टदिनका कायोत्सर्ग धरे खडे थे अर तहांते चारकोस तीन कन्या महामनोग्य नेत्र जिनके, जटा धरें सफे वस्त्र पहरे विधिपूर्वक महा तपकर निर्मल चित्त जिनका मानों कन्गा नीन लोककी आभूषण ही हैं।
अथानंतर बनमें अग्नि लागी सो दोऊ मुनि धीर वीर वृत्तकी न्याई खडे समस्त वन दावानल करि जरे, ते दोऊ निग्रंथ योगयुक्त मोक्षाभिलाषी र गादिकके त्यागी प्रशातवदन शान्तचित्त नि पाप अवांछक नासादृष्टि, लंबा हैं भुना जिनकी, कायोत्सर्ग धरे जिनके जीवना मरना तुल्य, शत्रु मित्र समान, कांचन पाषाण समान सो दोऊ मुनिको जरते देख हनुमान कम्पायमान भया, वात्सल्य गुणकरि मंडित महा भक्ति संयुक्त वैया वृत करिवेको उद्यनी भया, समुद्रका जल लेयकर मूसलाधार मेह बरसाया सो क्षणमत्रवि पृथिवी जलरूप होय गई । अग्नि ताजलकरि हनूमानने ऐसे बुझाई जैसे मुनि क्षमाभावरूप जल करि क्रोधरूप-ग्निको बुझावें । मुनिनिका उपसर्ग दूर कर तिनकी पूजा करता भया अर वे तीन कन्या विद्या साधती हु सो दावानल व्याकुलताका कारण भया हुआ मो हनूम नके मेहकर वन का उपद्रव मिटा सो विद्या सिद्ध भई. समेरुकी तीन प्रदक्षिणा करि मुनिनिके निकट आयकर नमस्कार करती अर हनुमानकी स्तुति करती
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