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________________ समूह कर चली अर राजाको तुरंग हर लेगया था सो वनके सरोवरनिमें कीचमें फंस गया उतने हीमें पटराणी जाय पहुँची राजा राणी पै आया तब राणी राजासे हास्यके वचन कहती भई-हे महाराज ! जो यह अश्व आपको न हाता तो यह नन्दनवनसा वन अर मानसरोवरसा सर कैसे देखते तब राजाने कही हे राणी वन यात्रा अब सुफल भई जो तिहारा दर्शन भया या भांति दम्पती परस्पर प्रीतिकी बातकर सखीजन सहित सरोवरके तीर बैठे नाना प्रकार जल क्रीडा कर दोनों भोजनके अर्थ उद्यमी भये ता समय श्रीराम मुनि कांतारचर्या के करणहारे या तरफ आहार को आए साधुकी क्रियामें प्रवीण तिनको देख राजा हर्ष कर रोमांच भया राणी सहित सन्मुख जाय नमस्कार कर ऐसे शब्द कहता भया हे भगवान यहां तिष्टो अन्न जल पवित्र है, प्रासुक जल कर राजाने मुनिके पग धोये, नवधा भक्ति कर सप्तगुण सहित मुनिको महा पवित्र क्षीर आहार दिया, स्वर्ण के पात्रमें लेय कर महापात्र जे मुनि तिनके कर पात्रमें पवित्र अन्न देता भया निरंतराय आहार भया तब देव हर्षित होय पंचाश्चर्य करते भए अर आप अक्षीण महाऋद्धि धारक सो वा दिन रसोईका अन्न अटूट होय गया, पंचाश्चर्यके नाम, पंच वर्ण रत्नोंकी वर्षा अर महा सुगन्ध कल्पवृक्षोके पुष्पकी वर्षा शीतल मंद सुगन्ध पवन दुदंभी नाद जय २ शब्द, धन्य धन्य यह दान धन्य यह पात्र धन्य यह विधि धन्य यह दाता नाक करी नीके करी नादो विरधो फूलो फलो या भांतिके शब्द आकाशमें देव करते भये अथ नवधा भक्तिके नाम मुनिको पडगाहना ऊचे स्थानक राखना चरणारविंद धोवने चरणोदक माथे चढावना पूजा करनी मन शुद्ध वचन शुद्ध काय शुद्ध आहार शुद्ध यह नवधा भक्ति अर श्रद्धा शक्ति निर्लोभता दया क्षमा अदेखसखापणो नहीं हर्षे संयुक्त यह दाताके सातगुण वह राजा प्रतिनन्दी मुनिदानसे देवों कर पूज्य भया अर श्रावकके व्रत धारे निर्मल है सम्यक्त्व जाके पृथ्वीमें प्रसिद्ध होता भया बहुत महिमा पाई अर पञ्चाश्चर्य में नाना प्रकारके रत्न स्वर्णकी वर्षा भई सो दशो दिशामें द्योत भया अर पृथिवीका दरिद्र गया, राजा राणी सहित महा विनयवान् भक्ति कर नम्रीभूत महा मुनिको विधिपूर्वक निरन्तराय आहार देय परम प्रबोधको प्राप्त भया अपना मनुष्य जन्म सफल जानता भया अर राम महा मुनि तपके अर्थ एकांत रहै बारह प्रकार तपके करणहारे तप ऋद्धि कर अद्वितीय पृथिवीमें अद्विती सूर्य विहार करते भए । इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ ताकी भाषावचनिकाबिर्षे राममुनिको निरतराय आहार वर्णन करनेवाला एकसौ इक्कीसवां पर्व पूर्ण भया । ५२५ ॥ अथानन्तर गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कह हैं-हे श्रेणिक ! वह आत्माराम महा मुनि वलदेव स्वामी शांत किए हैं राग द्वेष जाने जो और मनुष्योंसे न वन आवै ऐसा तप करते भए, महा वनमें विहार करते पंचमहावत पंचपमिति तीन गुप्त पालते शास्त्रके वेक्ता जितेंद्री जिनधर्ममें है अनुराग जिनका स्वाध्याय ध्यान में सावधान अनेक ऋद्धि उपजी परन्तु ऋद्धिनिकी खबर नही महा विरक्त निर्विशार बाईस परीषहके जीतनहारे तिनके तपके प्रभावतें वनके सिंह व्याघ्र मृगादिकके समूह निकट आय बैठे, जीवोंका जाति विरोध मिट गया, रामका शांत रूप निरख शानरूप भए, श्रीराम महावती चिदानन्दमें चित्त जिनका, परवस्तुकी वांछा रहित, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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