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पद्म पुराण
रहस्य जानि प्रतिबोधको प्राप्त भवा है, तू जो कहे है सो प्रमाण है तथापि हे धीर, तैं अबतक aag मेरी आज्ञा भंग न करी, तू विनयवान् पुरुषोंमें प्रधान है, मेरी वार्ता सुनि-तेरी माता "केने युद्ध मेरा सारथीपना किया, वह युद्ध प्रति विषम हुता जामें जीवनेकी आशा नाहीं सोया सारथीपनेकरि युद्धमें विजय पाई, तब मैं तुष्टः यमान होय याको कहा जो तेरी बांधा होय सो मांग तब याने कही यह वचन भण्डार रहे, जादिन मोहि इच्छा होयगी नादिन मांग लूंगी सो आज याने यह मांगी कि मेरे पुत्रको राज्य देहु सो मैं प्रमाण किया । अब हे गुणनिधे, तू इन्द्रके राज्य समान यह राज्य निकंटक करि । मेरी प्रतिज्ञा भंगकी अकीर्ति जगतविषै न होय अर यह तेरी माता तेरे शोककरि तप्तायमान होय मरणको न पायें, कैसी है यह निरंतर सुखकर लढाया है शरीर जाने अपत्य कहिए पुत्र ताका यहीं पुत्रवना है कि माता पिताको शोक समुद्र न डारे यह बात बुद्धिमान कहे हैं या भांति राजा कही ।
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अथानन्तर श्रीराम भरत का हाथ पकड महामधुर वचनसे प्रेमकी भरी दृष्टिकर देखते संते कहते भए, हे भ्रात ! तातने जैसे वचन तोहि कहे ऐसे और कौन कहने समर्थ ? जो समुद्र से रत्नों की उत्पत्ति हो सो सराबरसे हां? अवर तरी वय तपके योग्य नाहीं, कैएक दिन राज्य कर जसे पिताकी कार्ति वचनके पालिवे की चन्द्रमा समान निर्मल अर तो सारिखे पुत्रके होते संवे माता शोककर ततायमान मरणको प्राप्त होय यह योग्य नाहीं अर मैं पर्वत अथवा वनविषै ऐसी जगह निवास करूंगा जो कोई न जाने निश्चित राज्यकरि । मैं सकल राजऋद्धि तज देशसे दूर रहूँगा र पृथिवीको पीडा काहू प्रकार न होयगी तातें तू दीर्घ सांस मत डारे, कैयक दिन पिताकी आज्ञा मान राज्यकरि, न्यायसहित पृथ्वीको रक्षाकरि, हे निर्मल स्वभाव ! यह इक्ष्वाकु वंशनिका कुल याहि तु अत्यंत शोभायमान करि जैसे- चन्द्रमा ग्रह नक्षत्रादिक को शोभायमान करे है । भाईका यही भाईपना पंडितनिने कहा है भाइनिकी रक्षा करे संताप हरे । श्रीरामचन्द्र ऐसे वचन कहकर पिताके चरणनिको भाव सहित प्रणामकर चल पडे, तब पिताको मूर्छा श्री गई, काष्ठके समान शीर होय गया, राम तर्कश बांध धनुष हाथमें लेय माताको नमस्कार कर कहते भए - हे माता हम अन्य देश जांग हैं तुम चिंता न करनी तब माताको भी मूर्छा आय गई, बहुरि सचेत होय आंसू डारती संती कहती भई, हाय पुत्र ! तुम मोहि शोकके समुद्रमें डार कहाँ जावो हो, तुम उत्तम चेष्टाके धरणहारे हो माताका पुत्र ही अवलंबन है जैसे 'शाखा के मूल आधार है । माता रुदनकरि विलाप करती भई, तब श्रीराम माताकी भक्ति में तत्पर ताहि प्रणामकरि कहते भए - हे माता ! तुम विषाद मत करहुं । मैं दक्षिण दिशा में कोई स्थानक कर तुमको निसंदेह बुलाऊंगा । हमारे पिताने माता केकईको वर दिया हुता सो भरतको राज्य दिया । अब मैं यहां न रहूँ, विन्ध्याचलके वन विनै श्रथवा मलयाचल के वनविषै तथा समुद्रके समीप स्थानक करूंगा। मैं सूर्य समान यहां रहूँ तो भरत चन्द्रमाकी आज्ञा ऐश्वर्यरूप कांति न विस्तरे । तब माता नम्रीभूत जो पुत्र ताहि उरसे लगाय रुदन करती संधी कहती मई- हे पुत्र ! मोकू तिहारे साथ चलना ही उचित है, तोकू देखे बिना मैं
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