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________________ इकत्तीस पर्व 中華女 विनयको धरते संते कहते भए पिताके चरणारविंदकी ओर हैं नेत्र जिनके अर महा सज्जन भावकी परे हैं, हे तात, तुम अपना वचन पालो हमारी चिंता तत्रों जो तिहारे वचन चूकने की अपकीर्ति ही पर हमारे इन्द्रकी सम्पदा वै तो कौन अर्थ १ जो सुपुत्र हैं तो ऐसा ही कार्य करें जाकर माता पिताकू रंचमात्र भी शोक न उपजै । पुत्रका यही पुत्रपना पंडित कहे हैं--जो पिताक पवित्र करे श्रर कष्टतैं रक्षा करै । पवित्र करणा यह कहावै जो उनकू जिनधर्मके सन्मुख करें । दशरथके और राम लक्ष्मणके यह बात होय है ताही समय भरत महिलतें उतरा मनमें विचारों मैं कर्मनिकू' हन् मुनिव्रत धरू सो लोकनिके मुखतें हाहाकार शब्द भया तब पिताने विल fee हो भरत बन जायचेतैं राखा, गोद में ले बैठे छातीस लगाय लिया मुख चूमा अरे कहते भए हे पुत्र, तू प्रजाका पालन कर, मैं तप के अर्थ वनमें जाऊ हूँ । भरत बोले- मैं राज्य न कह जिनदीचा धरूंगा । तत्र राजा कहते भए - हे वत्स ! कई एक दिन राज्य करहु तिहारी नवीन वय है, वृद्ध अवस्थामें तप करियो । भरत कही है तान, जो मृत्यु है सो वाल वृद्ध तरुण नाहीं देखे हैं, सर्वभक्षी है, तुम मोहि वृथा काहेको मोह उपजात्रो हो ? तब राजा कही हे पुत्र गृहस्थोंश्रमविषै भी धर्मका संग्रह होय है। कुमानुष नितें नहीं बने हैं । तब भरत कही - हे नाथ, इन्द्रियनि के वशर्तें काम क्रोधादिक भरे गृहस्थनिकू मुक्ति कहां ? तव भूपतिने कही- हे भरत, मुनिनिहू में सब की तब मुक्ति नहीं होय है, कैईएककी होय है ता तू कई दिन गृहस्थ धर्म आराधि तद भरत वही हे देव आप जो कही सो सत्य है परन्तु जो गृहस्थनिका तो यह नियम ही है जो मुक्ति न हो घर सुनिनमें कोई की होय काई की न होय । गृहस्थ धर्मतें परम्पराय मुक्ति है साक्षात् नाहीं तातें हीन शक्तिवारेनिका काम है, मोहि यह बात न रुचै. मैं महाव्रत धरणेकाही अभिलाषी हूँ । गरुड कहा पतंगनिकी रीति आचरें ? कुमानुष कामरूप अग्नि की ज्वालाकरि परम दाह प्राप्त भए संते स्पर्शन इन्द्रिय पर जिह्वा इन्द्रिकारे अधर्मकार्यकू' करे हैं, तिनकू' निवृत्ति कहां ? पापी जीव धर्मते विमुख विषय भोगनिकू सेय करि निश्चय सेती महां दुःख दाता जो दुर्गति ताहि प्राप्त होय हैं, ये भोग दुर्गतिके उपजावनहारे अर राखे न रहें, क्षणभंगुर सा स्पाज्यदी हैं ज्यों ज्यों कामरूप अग्नि में भोगरूप ईवन डारिये त्यों त्यों अत्यन्त तापकी कराहारी कामाग्नि प्रज्वलित होय है तातें हे तात, तुम मोहि आज्ञा देवो जो वनमें जाये विधिपूर्वक तप करू, जिनभःपित तप परम निर्जराका कारण है, या संसारतें मैं अतिभयकू प्राप्त हूं अर हे प्रभो, जो घरही विषं कल्याण होय तो तुम काहेको घर तजि मुनि हुआ चाही हो? तुम मेरे तात हो सो तातका यही धर्म है संसार समुद्रतें तारै, तपकी अनुमोदना करें, यह बात विचक्षण पुरुष कहे हैं शरीर स्त्री धन माता पिता भाई सकलकू तजि यह जीव अकेली ही परलोकक जाय है, चिरकाल देवलोक के सुख भोगे है, तो हू यह तृप्त न भया सो कैसे मनुष्यों भोगनिकरि तृप्त होय ! पिता भरत के ये वचन सुनकर बहुत प्रसन्न भया, हर्ष थकी रोमांच होय आए, घर कहता भया हे पुत्र, तू धन्य है, भज्यनिविषै मुख्य है, जिनशासनका ३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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