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प-पुराण लिए, अर महारुदन किया। भरत पिताका वैराग्य सुन आप भी प्रतिबोधको प्राप्त भए, चित्तमें चिंतवते भए-अहो यह स्नेहका बंधन छेदना कठिन है। हमारा पिता ज्ञानको प्राप्त भया । जिनदीक्षा लेनेको इच्छे हैं, अब इनके राज्यकी चिंता कहा, मोहि तो न किसीको कुछ पूछना न कुछ करना तपोवनमें प्रोश करूंगा। कैमा है संयम ? संसारके दुःखोंका क्षय करणहारा है अर मेरे इस देह करहू कहा ? कैसा है यह देह ब्याथिका घर है अर विनश्वर है सो यदि देहहीसे मेरा सम्बन्ध नाहीं तो बांधवनिलो कहा सम्बन्ध ? यह सब अपने अपने कर्म फलके भोगता है, यह प्राणी मोह कर अंधा है दुःख रूप वनमें अकेला ही भटके है दुःख रूप वन अनेक भव भय रूप चनिते भरा है॥
अथानन्तर केकई सफल कलाकी जाननहरी भरतकी यह चेष्टा जान अतिशोक धरती भई, मनमें चिनवे है-भरतार और पुत्र दोनों ही वैराग्य धारया चाहे हैं कौन उपाय कर इनका निवारण करू या भांति चिंता कर व्याकुल भया है मन जाका तब राजाने जो वर दीया हुता सो याद अाया अर शीघ्र ही पतिपै जाय आधे सिंहासनपर बैठी अर वीनती करती भई -हे नाथ ! सब ही स्त्रीनिके निकट तुम मोहि कृपाकर कही हुती जो तू मांगे सो मैं देऊ सो अब देवो। तुम पन्यवादी हो पर दानकरि निर्मलकीत तिहारी जगतविष विस्तर रही है। तब दशरथ कहने भये-हे प्रिये, जो तेरी बांछ होय सो ही लेहु। तब राणी केकई अासू डारती संती कहती भई-हे नाथ, हमपै ऐसी कहा चूक भई, जो तुम कठार चित्त किया ? हम सजा चाहो हमारा जीप तो तिारे आधीन है अर यह जिनदीक्षा अत्यन्त दुर्धर सो लेयवेको तुम्हारी बुद्धि काहे प्रवृत्ति है ? यह इन्द्र समान जे भाग तिनकर लड़ाया जो तिहारा शरीर सो कैसे मुनिपद धारोगे ? कैसा है मुनिपद अत्यन्त विषम है । या भांति जब राणी कैकई ने कहा तब आप कहते भए- हे का, समर्थनिकू कहा विषम ? मैं तो निसन्देह मुनियत धरूंगा, तेरी अभिलाषा होय सो मांग लेहु । राणी चिंतावान होय नीचा मुखकर कहती भई-हे नाथ, मेरे पुत्रको.राज्य देहु । तब दशरथ बोले यामें कहा संदेह १ ते धरोहरि मेली दुती सो अब लेहु, तें जो कहा सो हम प्रमाण किया, अब शोक तज, तैं मोहि ऋणरहित किया। तब राम लक्ष्मणको बुलाय दशरथ कहते भये--कैसे है दोऊ भाई महा विनयवान हैं, पिताके प्राज्ञाकारी हैं, राजा कहे हैं..हे वत्स, यह केकई अनेक कलाकी पारगामिनी, याने पूर्व महा घोर संग्रामविष मेरा सारथिपनाःकिया, यह अतिचतुर है, मेरी जीत भई । तब मैं तुष्टार्यमान होय याहि बरदिया जो तेरी बाबा होय सो मांग, तव याने वचन मेरे धरोहरि मेला, अब यह कहे है मेरे पुत्रको राज्य देवों सो याके पुत्रको राज्य न देउ तो याका पुत्र भरत संसारका त्याग करै अर यह पुत्रके शोककरि प्राण सजै अर मेरी वचन चूकनेकी अकीर्ति जातमें विस्तरै, अर यह काम मर्यादात विपरीत है जो बड़े पुत्रकू छोड़कर छोटे पुत्रकू राज्य देना अर भरतकू सकल पृथिवीका राज्य दीए तुम लक्ष्मणसहित कहां जावो, तुम दोऊ भाई परमक्षत्री, तेजके धरनहारे हो, तात हे वत्स, मैं कहाँ करू दीऊ ही कठिन बात आय बनी हैं। मैं अत्यन्त दुःखरूप चिंताके सागर पड़ा हूं। तब श्रीरामचन्द्र मेहा
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