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________________ तेतालीस पण ६३३ विकल्पकर विचारती भई निःसंदेह मेरा पुत्र परलोकको प्राप्त भया, विचारा कुछ और ही हुता अर भया कुछ और ही, यह बात विचार में न हुती सो भई । हे पुत्र ! जो तू जीवता र सूर्यास खड्ग सिद्ध होता तो जैसे चन्द्रहासके धारक रावण के सन्मुख कोऊ न श्राय सके है तैसे तेरे सन्मुख कोऊन आय सकता मानों चंद्रहास मेरे भाई के हाथमें स्थानक किया सो अपना विरोधी सूर्यहास ताहि तेरे हाथमेंन देख सका, भयानक वनमें अकेला निर्दोष नियमका धारी ताहि मारने को जाके हाथ चले, सो ऐसा पापी खोटा बैरी कौन है ? जा दुष्टने तोहि हत्या अब वह कहां जीवता जागता जायगा, या भांति विलाप करती पुत्रका मस्तक गोद में लेय चूमती मई. मूंगासमान आरक्त हैं नेत्र जाके बहुरि शोक तज क्रोधरूप होय शत्रुके मारने को दोडी, सो चली चली तहां आई जहा दोऊ भाई त्रिराजे हुने, दोऊ महारूपवान मननोहिबे के कारण तिनको देख याका प्रबल क्रोध जाता रहा, तत्काल राग उपजा । मनविषै चितवती भई, इन दोऊनि में जो मोहि इच्छे ताहि मैं सेवू, यह विचार तत्काल कामातुर भई, जैसे कम्लनिके वनमें हंसिनी मोहित होय र महा हृदमें भैंस अनुरागिनी हो अर हरे धान के खेतविषै हरिणी अभिलाषिणी होय तैसे इनमें यह आसक्त भई, सो एक पुन्नागवृक्षके नीचे बैठी रुदन करे श्रतिदीन शब्द उचारे वनकी रजकर धूसरा होय रहा है अंग जाका, ताहि देखकर रामकी रमणी सीता अति दयालु चित्त उठकर ताके समीप आय कहती भई - तू शोक मतकर हाथ पकड ताहि शुभ बच्चन कह धीर्य बधाय रामके निकट लाई, तब राम ताहि कहते भए - तू कौन है ? यह दुष्ट जीवनिका भरा वन ताविषै अकेली क्यों विचरे है ? तब वह कमल सरीखे हैं नेत्र जाके पर अमर की गुंजार समान हैं वचन जाके सो कहती भई — हे पुरुषोत्तम, मेरी माता तो मरणको प्राप्त भई, सो मोको गभ्य नाहीं मैं बालक हुती, बहुरि ताके शोककर पिता भी परलोक गया । सो मैं पूर्वले पावते कुटुम्ब रहित दंडक वनमें आई, मेरे मरणकी अभिलाषा सो या भयानक वनमें काहू दृष्ट जीवने न भखी, बहुत दिनबीते या वनविषै भटक रही हूं, आज मेरे कोई पापकर्मका नाश भया सो आपका दर्शन भया । अब मेरे प्राण न छूटें, ता पहिले मोहि कृपाकर इच्छहु, जो कन्या कुलवंती शीलवंती होंय ताहि कौन न इच्छे, सब ही इच्छें, यह याके लज्जारहित वचन सुनकर दोऊ भाई नरोतम परस्पर अवलोकन कर मौनसे तिष्ठे । कैसे हैं दोऊ भाई, सर्व शास्त्रनिके अर्थका जो ज्ञान सोई भया जल ताकरि धोया है मन जिनका कृत्य कृत्यके विवेकविषै प्रवीण, तब वह इनका चित निष्काम जान निश्वास नाख कहती भई, : मैं जावू ? तब राम लक्ष्मण बोले जो तेरी इच्छा होय सो कर, तब वह चली गई । ताके गए पीछे राम लक्ष्मण सीता आश्चर्यको प्राप्त भए अर यह क्रोधायमान होय शीघ्र पति के समीप गई अर लक्ष्मण मनमें विचारता भया जो यह कौन की पुत्री कौन देशमें उपजी समूहसे बिछुरी मृगी समान यहां कहां आई । हे श्रेणिक, यह कार्य कर्तव्य यह न कर्तव्य याका परिपाक शुभ वा अशुभ ऐसा विचार अविवेकीन जानें। अज्ञानरूप तिमिरकरि आच्छादित है बुद्धि जिनकी अर प्रवीण बुद्धि महाविवेकी अविवेकते. 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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