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________________ पा-पुराण खडग देख प्रसन्न भई अर पतिमू जाय कही कि संयुकको सूर्यहास खङ्ग सिद्ध भया अब मेरा पुत्र मेरुकी तीन प्रदक्षिणाकर आवेगा, सो यह तो ऐसे मनोरथ करे ता वनमें भ्रमता लक्ष्मण पाया। हारों देवनिकरि रक्षायोग्य खड्ग स्वभाव सुगन्ध अद्भुत रत्न सो गौतम कहे हैं-हे श्रेणिक ! वह देवोपुनीत खड्ग महासुगंध दिव्य गंधादिककर लिप्त कल्पवृक्षनिके पुष्पनिकी माला तिनकरि युक्त सो सूर्यहास खडगकी सुगंध लक्ष्मण को श्राई, लक्ष्मण आश्चर्यको प्राप्त भया और कार्य तज सीधा शीघ्र ही बांसकी ओर आया, सिंह समान निर्भय देखता भया। वृक्षनिकरि आच्छादित महाविषम स्थल जहां बेलनिके समूह अनेक जाल ऊचे पाषाण तहां मध्यमें समभूमि सुन्दर क्षेत्र श्रीविचित्ररथमुनिका निर्वाण क्षेत्र सुवर्णके कमलनिकरि पूरित ताके मध्य एक बांसनिका बीडा ताके ऊपर खड्ग आय रहा है सो ताकी किरणके समूहकरि बांसनिका बीडा प्रकाशरूप होय रहा है । सो लक्ष्मणने आश्चर्यको पाय निशंक होय खड़ग लिया अर ताकी तीक्ष्णता जाननेके अर्थ बांसके बीडापर वाहिया (चलाया) सो संबूक सहित चांसका बीडा कट गया पर खड़गके रक्षक सहस्रों देव लक्ष्मणके हाथमें खड्ग लाया जान कहते भए--तुम हमारे स्वामी हो ऐसा कह नमस्कार कर पूजते भए । ___अथानन्तर लक्ष्मणको बहुन बेर लगी जान रामचन्द्र सीता कहते भए, लक्ष्मण कहां गया? हे भद ! जटायू तू उडकर देख लक्ष्मण आवे है। तव सीता बोली हे नाथ, लक्ष्मण आया केसरकर. चरचा है अंग जाका नाना प्रकारकी माला पर सुन्दर वस्त्र पहिरे पर एक खड्ग अद्भुत लिये आवे है सो खड़ग सू ऐसा सोहे है जैसा केसरी सिंह पर्वत शोभे तब रामने आश्चर्यको प्राप्त भया है मन जिनका अति हर्षित होय लक्ष्मणको उठकर उर से लगाय लिया, सकल वृत्तांत पूछा । तब लक्ष्मण सर्व बात कही, आप भाई सहित सखसे बिराजे नाना प्रकारकी कथा करें अर संबूककी माता चन्द्रनखा.प्रतिदिन एकही अन्नका भोजन लावती हुती सो आगे आय कर देखे तो बांसका बीडा कटा पडा है, तब विचारती भई जो मेरे पुत्रने भला न किया. जहां इतने दिन रहा अर विद्यासिद्धि भई ताही बीडे को काटा सो योग्य नाहीं अब अटवी छोड कहां गया इत उत देखे तो अस्त होता जो सूर्य ताके मंडल समान कुण्डलसहित शिर पडा है, देखकर ताहि मूळ आय गई मो मूर्खा याका परम उपकार किया नातर पुत्रके मरण करि यह कहां जीवे, बहुरि केतकी बेरमें याहि चेत भया तव हाहाकार कर उठी। पुत्रका कटा मस्तक देख शोक कर अति विलाप किया, नेत्र आंसुनि सू भर गए, अकेली वनमें कुरचीकी न्याई पुकारती भई-हा पुत्र ! बारह वर्ष अर चार दिन यहां व्यतीत भए तैसे तीन दिन और ह क्यो न निकस गए । तोहि मरण कहां ते आया ? हाय पापी काल तेरा मैं कहा बिगाडा जो नेत्रनिकी निधि पुत्र मेरा तत्काल विनाशा, मैं पापिनी परभवमें काहुका बालक हना सो मेरा हतागया, हे पुत्र ! आर्तिका मेटनहारा एक वचन तो मुखम् कह, हे वत्म ! श्रा अपना मनोहर रूप मोहि दिखा, ऐसी मायारूप अमंगल क्रीडा करना तोहि उचित नाहीं। अब तक ते माताकी आज्ञा कबह न लोपी अब निःकारण यह विनयलोप कार्य करना तोहि योग्य नाही इत्यादिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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