________________
सेतालीसा पर्व
सनिके इन्द्र महाभीमने त्रिकूटाचल पर्वतके समीप राक्षमीप तहा लंका नामा नगरी सो कृपाकर दई भर यह रहस्यकी बात कही-हे विद्याधर सुनहु, भरत क्षेत्रके दक्षिण दिशाकी तरफ लवण समुद्रके उत्तर की ओर पृथिवीके उदर विष एक अलंकारोदय नामा नगर है सो अमृत स्थानक है और नानाप्रकार रत्ननिकी किरणनिकरि मंडित है । देवनिको भी आश्चर्य उपजाचे तो ममुष्यनिकी कहा बात, भूमिगोचरिनिको तो अगम्य ही है अर विद्याधरको भी अतिविषम है चितवनमें न आवे सर्व गुणनिकरि पूर्ण है। जहां मणिनिके मंदिर हैं. परचक्रते अगोचर है सो कदाचित तुमको अथवा तेरे सन्तानके राजानिको लंकामें परचक्रका भय उपजे तो अलंकारोदयपुरमें निर्भय भए तिष्ठियो याहि पाताललंका कहे हैं ऐसा कहकर महाभीम बुद्धिमान राक्षसनिके इन्द्रने अनुग्रहकर रावणके बड़ेनिको लंका अर पाताललंका दई अर राक्षस द्वीप दिया सो यहां इनके वंशमें अनेक राजा भए। बड़े २ विवेकी व्रतधारी भए सो रावणके बड़े विद्याधर कुलमें उपजे हैं देव नाहीं, विद्याधर पर देवनमें भेद है जैसे तिलक अर पर्वत, कर्दम भर चन्दन, पाषाण अर रत्ननिमें वडा भेद, देवनिकी शक्ति बडी, कांति बडी पर विद्याधर तो मनुष्य हैं क्षत्री वैश्य शद्र यह तीन कुल हैं । गर्भवासके खेद भुगते हैं विद्या साधनकर आकाश में विघरे हैं सो अढाई द्वीप पर्यंत गमन करे हैं अर देव गर्भवाससे उपजे नाही, महासुन्दर सरूप पवित्र धातु उपधातुकर रहित खनिकी पलक लगे नहीं, सदा जाग्रत जरारोग रहित नवयौ. वन तेजस्वी उदार सौभाग्यवंत महासुखी स्वभावहीते विद्यावंत अवधिनेत्र, चाहें जैसा रूप करें, स्वेच्छाचारी देव विद्याधरनिका कह सम्बन्ध ? हे श्रेणिक ! ये लंकाके विद्याधर राक्षस द्वीपविणे बसें, तातै राक्षस कहाए । ये मनुष्य क्षत्रीवंश विद्याधर हैं देव हू नाही, राक्षस हूँ नाहीं, इनके वंशविष लंकाविणे अजितनाथके समयते लेकर मुनिसुव्रतनाथके समय पर्यंत अनेक सहस्र राजा प्रशंसा करने योग्य भए। कई सिद्ध भए, कई सर्वाथसिद्धि गए, कई स्वर्गविणै देव भए, कई एक पापी नरक गए, अब ता बंशमें तीन खंडका अतिपति जी रावण सो राज्य करै है ताकी बहिन चन्द्रनखा रूपकरि अनूपम सो महा पराक्रमवंत खरदूषणने परणी, वह चौदह इजार राजानिका शिरोमणि रावणकी सेनामें मुख्य सो दिग्पाल समान अलंकारपुर जो पाताललंका वहां थाने रहे है. ताके संयूक अर सुन्द ये दो पुत्र रावणके भानजे पृथिवीमें अतिमान्य भए । सो गौतमस्वामी कहे हैं-हे श्रेणिक ! माता पिताने संबूकको बहुन मने किया तथापि कालका प्रेरा सूर्यहास खडगके साधिवेके अर्थ महाभयानक वनमें प्रवेश करता भया, शास्त्रोक्त प्राचारको आचरता संता सूर्यहास खड़गके साधिवेको उद्यमी भया । एक ही अन्नका श्राहरी, ब्रह्मचारी जितेन्द्रिय विद्या साधिवेको बांसके बीडे में यह कहकर बैठा, कि जब मेरा पूर्ण साधन होयगा, तब ही मैं बाहिर पाऊंगा, ता पहिली कोई बीड़ेमें आवेगा पर मेरी दृष्टि पड़ेगा तो ताहि मैं मारमा। ऐसा कह कर एकांत बैठा, सो कहाँ बैठा-दंडक वनमें क्रोचरवा नदीके उत्तर तीर बांसके ब्रीडेमें बैठा, वारहवर्ष साधन किया, खड्ग प्रकट भया । सो सातदिनमें यह न लेय तो खड़ग परके हाथ जाय अर यह मारा जाय, सो चन्द्रनखा निरन्तर पुत्रके निकट भोजन लेय प्रावती सो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org