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पद्म-पुराण
विष बरसे है जैसे कोई द्रव्यवान पात्रदान र करुणादान तज वेश्यादिक कुमार्गविष धन खोवे, हे लक्ष्मण, या वर्षाऋतुविष अतिवेगम् नदी बहे है पर धरती कीचसू भर रही है अर प्रचंड पवन बाजे है भूमिविष हरितकाय फैल रही हैं अर जीत्र विशेषतासे हैं या समयविष विवेकिनिका विहार नाहीं । ऐसे वचन श्रीरामचन्द्र के सुनकर सुमित्राका नन्दन लक्ष्मण बोला हे नाथ, जो आप आज्ञा करोगे सो ही मैं करूंगा। ऐसी सुन्दर कथा करते दोऊ वीर महावीर सुन्दर स्थानकवि सुख से वर्षाकाल पूर्ण करते भए । कैसा है वर्षाकाल ? जासमय सूर्य नाही दीखे है ।
इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकाविषै कानविषै निवास वर्णन करनेवाला बियालीसनां पर्ग पूर्ण भया ॥ ४२ ॥
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अथानन्तर वर्षाऋतु व्यतीत भई शरदऋतुका आगमन भयो मानों यह शरदऋतु चन्द्रमाकी किरण रूप बांणनिकरि वर्षारूप बैरीको जीत पृथिवीविषै अपना प्रताप विस्तारती भई • दिशारूप जे स्त्री सो फूल रहे हैं फूल जिनके ऐसे वृक्षनिकी सुगन्धवाकर सुगन्धित भई है अर वर्षा समयवि कारी घटानिकर जो आकाश श्याम हुता सो अब चंद्रकांतिकर उज्ज्वल शोभता भया मानों क्षीरसागर के जल करि धोया है अर बिजलीरूप स्वर्ण सांकल युक्त वर्षाकालरूपी गज पृथिवीरूप लक्ष्मीको स्नान कराय कहां जाता रहा र शरद के योगते कवल फूले तिनपर अमर गुंजार करते भए, हंस क्रीडा करते भए अर नदिनिके जल निर्मत होय गए दोऊ किनारे महा सुन्दर भासते भए मानों शरदकाल रूप नायकको पाय सरितारूप कामिनी कांतिको प्राप्त भई हैं अरबन वर्षा र पवनकर छूटे कैसे शोभते भए मानो निद्राकरि रहित जाग्रत दशाको प्राप्त भए हैं। सरोवर निविषै सरोजनिपर भ्रमर गुंजार करे हैं अर बनविषै वृक्षनिविषै पक्षी नाद करें हैं सो मानो परम्पर वार्ता ही करें हैं और रजनीरूप नायिका नानाप्रकार के पुष्पनिकी सुगंध ताकर सुगन्धित निर्मल आकाशरूप वस्त्र पहरे चंद्रमारूप तिलक थरें मानों शरदकालरूप नायक पै जाय है । र कोमीजननिको काम उपाजवती केतकीके पुष्पनिकी रजकर सुगन्ध पवन चले हैं या भांति शरदऋतु प्रवरती सो लक्ष्मण बडे भाईकी श्राज्ञा मांग सिंहममान महा पराक्रमी वन देखने को अकेला निकला सो आगे गए एक सुगन्धपवन आई तब लक्ष्मण विचारते भए यह सुगन्ध काकी है ऐसी अद्भुत मुगन्ध वृक्षनिकी न होय अथवा मेरे शरीर की हू ऐसी सुगंध नाहीं यह सीताजीके अंगकी सुगंध होय तथा रामजीके अंगकी सुगंध होय तथा कोऊ देव आया होय ऐसा सन्देह लद को उपजा सो यह कथा राजा श्रेणिक सुन गौतम स्वामी से पूछता भया - हे प्रभो ! जो सुगन्धकर वासुदेवको आश्चर्य उपजा सो वह सुगंध काहे की ? तब गौतम गणधर कहते भए - केंद्र हैं गौतम १ संदेहरूप तिमिर दूर करनेको सूर्य हैं। सर्वलोककी चेष्टा को जाने है पापरूप रजक उडावनेको पवन हैं । गौतम कहे हैं - हे श्रेणिक ! द्वितीय तीर्थकर श्री अजितनाथ तिनके समोशरण में मेघवाहन विद्याधर रावण का बडा, शरले आया ताहि राच
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