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________________ ..१६६ पद्म-परोण उद्यमी भए तव प्रल्हादको चलता सुनकर पवनंजयकुमारने हाथ जोड़ गोड़ों से धरती स्पर्श नमस्कार कर विनती करी । हे नाथ ! मुझ पुत्रके होते संते तुमको गमन युक्त नहीं, पिता जो पुत्रको पालै है सो पुत्र का यही धर्म है कि पिताकी सेवा करें जो रुंवा न करें तो जानिए पुत्र भया ही नाहीं तार्ते आप कूच न करें, मोहि आज्ञा करें, तब पिता कहते भये - हे पुत्र ! तुम कुमार हो अबतक तुमने कोई खेत देखा नहीं तातें तुम यहां रहो मैं जाऊंगा । तब पवनंजयकुमार कनकाचलके तट समान जो वक्षस्थल उसे ऊंचाकर तेजके वरणहारे वचन कहते भए— हे वात; मेरी शक्तिका लक्षण तुमने देखा नही, जगत के दाहमें अग्नि के स्फुलिंगे का क्या वीर्यं परखना । तुम्हारी आज्ञारूप आशिषाकर पवित्र मया है मस्तक मेरा ऐसा जो मैं इंद्र को भी जीतनेको समर्थ हूँ यामें सन्देह नहीं। ऐसा कहकर पिताको नमस्कार कर महाहर्षसंयुक्त उठकर स्नान भोजनादि शरीरकी क्रिया करी, अर यादरसहित जे कुल में वृद्ध हैं तिन्होंने असीम दीनी, भावसहित रिहंत सिद्धको नमस्कार कर परम कांतिको धरता हुआ महा मंगलरूप पितासे विदा होने आया सो पिताने अर माताने अमंगल के भय से आंसू न काढे, आशीर्वाद दिया- हे पुत्र ; तेरी विजय होय छाती से लगाय मस्तक चूमा । पवनंजयकुमार श्रीभगवानका ध्यान घर माता पिताको प्रणामकर जे परिवार के लोग पायन पड़े तिनको बहुत धीर्य बंधाय सबसे अतिस्नेह कर विदा भए पहले अपना दाहना पांव आगे घर चले । फुरकै है दाहिनी भुजा जिनकी घर पूर्ण कलश जिनके मुखपर लाल पल्लव तिनपर प्रथम ही दृष्टि पड़ी अर थम्भ से लगी हुई द्वारे खड़ी जो अंजनी सुन्दरी से भीज रहे हैं नेत्र जाके, ताम्बूलादिरहित घूसरे होय रहे हैं अधर जाके मानों थम्भत्र उकेरी पुतली ही हैं । कुमारकी दृष्टि सुन्दरीपर पड़ी सो क्षणमात्र दृष्टि संकोच कोपकर बोले- हे दुरीक्षणे कहिये दुःखकारी है दर्शन जाका इन स्थानकतें जावो, तेरी दृष्टि उल्कापात समान है सो मैं सहार न सकू । श्रहो बड़े कुलकी पुत्री कुलवन्ती ! तिनमें यह ढीठपणा कि मने किए भी निर्लज्ज ऊभी रहें। ये पति के अतिक्रूर बचन सुने तौ भी याहि अति प्रिय लगे जैसे घने दिनके तिसाए पपैयेको मेघकी बूंद प्यारी लगे सो पतिके वचन मनकर अमृत समान पीवती भई । हाथ जोड़ चरणारविंदकी ओर दृष्टि घर गद्गद बाणीकर डिमते डिगते वचन नीठि २ कहती भई – हे नाथ; जब तुम यहां बिराजते हुते तव भी मैं वियोगिनी ही हुती परन्तु आप निकट हैं सो इस आशाकर प्राण कष्टसे टिक रहे हैं अब आप दूर पवार हैं मैं कैसे जीऊंगी। मैं तिहारे वचनरूप अमृत के आस्वादनकी अति आतुर तुम परदेशके गमन करते स्नेहसे दयालु चित्त होय कर वस्तीके पशु पक्षियोंको भी दिलासा करी, मनुष्योंकी तो कहावात ९ सबसे अमृत समान वचन कहे मेरा चित्त तुमारे चरणारविंदविषे है, मैं तुम्हारी अप्राप्तिकर यति दुःखी औरोंको श्रीमुखसे एती दिलासा करी मेरी औरोंके मुखसे ही दिलासा कराई होती । जब मुझे आपने वजी तब जगतमें शरण नहीं, मरण ही है । तब कुमारने मुख संकोचकर कोपसे क.ही, मर । तब यह सखी खेद खिन्न होय धरती पर गिर पड़ी, पवनकुमार इससे कुमाया ही रखविषै चले, बड़ी ऋद्धिसहित हाथी पर सवार होय सामन्यों सहित प्रयान किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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