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पद्मपुराण
तब महा संग्राम के करणहारे योधा तिनसे कहते भए - हे प्राणवल्लभे, नर वेई हैं जे रण में प्रशंसा पावें तथा युद्ध के सन्मुख जीव तजें तिनकी शत्रु कीर्ति करें हाथिनिके दांत निविष पग देय शत्रुत्रोंके घाव करें तिनकी शत्रु कीर्ति करें, पुण्यके उदय विना ऐसा सुभटपना नाहीं । हाथियोंके कुंभस्थल विदारणहारे नरसिंह तिनको जो हर्ष होय है सो कहिवेको कौन समर्थ है हे प्राणप्रिये ! क्षत्रीका यही धर्म है जो कायरोंको न मारें, शरणागतको न मारें, न मारिखे देंय । जो पीठ देंय तापर चोट न करें, जपै आयुध न होय तासों युद्ध न करें सो बालः वृद्ध दीमको तजकर हम महा योधावों के मस्तक पर पडेंगे, तुम हर्षित रहियो । हम युद्धविषै विजयवर तुम
मिलेंगे | या भांति अनेक वचननिकर अपनी अपनी रौताणियोंको धीर्य बंधाय योधा संग्रामके उद्यमी घरसे रणभूमिको निकसे । कोई एक सुभटानी चलते पतिके कण्ठ विषै दोनों भुजासे लिपट गई अर हीडती भई जैसे गजेन्द्रके कंठविष कमलनी लटकै अर कोई एक रौताणी स्त्री वक्तर पहि पतिके अंगसे लग अंगका स्पर्श न पाया सो खेदखिन्न होती मई पर कोई एक अर्द्ध बाहुलिको कहिए पेटी सो बल्लभके अंगसे लगी देख ईर्षा रससे स्पर्श करती भई कि हम टार इनके दूजी इनके उरसे कौन लगे यह जान लोचन संकोचे तब पति प्रियाको प्रसन्न जान कहते भए - ६ प्रिये, यह आधा वक्तर है स्त्रीवाची शब्द नाहीं, तब पुरुषका शब्द सुन हर्षको प्राप्त भई, कोई एक अपने पतिको ताम्बूल चबावती भई भर आप तांबूल चावति भई कोई एक पति रुखसत करी तौभी कैसीक दूर पत्रिके पीछे पीछे जाती भई, पतिके रखकी अभिलापा सो इनकी ओर निहारै नाहीं घर रणकी भेरी बाजी सो योधानिका चिच रणभूमिविषै गमन पर स्त्रीनि विदा होना सो दोनों कारण पाय योधावोंका चित्त मानों डिंडोले हीडवा भया । रौतानियोंको तज रावत चले तिन शैतानियोंने आंसू न डारे, आंसू अमंगल हैं भर कैएक योधा युद्धविषै जायबेकी शीघ्रताकर वक्तर भी न पहिर सके, जो हथियार हाथ आया सोही लेकर गर्व भरे निकसे, रणभेरी सुन उपजा है हर्ष जिनको शरीर पुष्ट होय गया सी वक्तर अंगविधै न आवै अर कईएक योधावोंके रणभेरीका शब्द सुन हर्ष उपजा सो पुराने घाव फट गए तिनमेंसे रुधिर निकसता भया पर काढूने नवा वस्कर बनाय पहिरा सो हर्षक होनेसे टूट गया सो मानों नया वक्तर पुराने वक्तरके भावको प्राप्त भया भर काहूके सिरका टोप ढीला होय गया सो प्राणवल्लभा दृढकर देती भई र कोईएक सुभट संग्रामका लालची ताके स्त्री सुगन्ध लगायवेकी अभिलाषा करती भई सो सुगन्धमें चित्त न दिया, युद्धको निकसा र ते स्त्रियां व्याकुलतारूप अपनी अपनी सेजपर पड रहीं ।
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अथानन्तर प्रथमही लंकासे हस्त प्रहस्त राजा युद्धको निकसे । कैसे हैं दोनों १ सर्वमें मुख्य जो कीर्ति सोई भवा अमृत ताके आस्वादनमें लालची श्रर हाथीयोंके रथ पर चढे, नाहीं सह सके हैं बेरियों का शब्द अर महा प्रतापके धारक शूरवीर, सो रावणको बिना पूछे ही निकसे यद्यपि स्वामीकी आज्ञा विना कार्य करना दोष है तथापि धनीके कार्य को विना आज्ञा जाये. तो दोष नहीं, गुणके भावको भजे है। मारीच सिंह जघन्य स्वयम्भू शंभू प्रथम विस्तीर्या बल से
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