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अस्सीवां पर्न मेषकी ध्वनि समान बादित्र वाजते भए, शंखनिके शब्द कर गिरिकी गुफा नाद करती भई, झझा मेसे मृदंग ढोल हजारों बाजते भए, लपाक काहल धुन्धु अनेक बाजे अर दुदंभी बाजे दशों दिशा वादिनोंके नाद कर पूरी गई। ऐसे ही तो वादित्रनिके शब्द अर ऐसेही नानाप्रकारके बाहननिके शब्द ऐसेही सामंतनिके अट्टहास तिनकर दशों दिशा पूरित भई कैयक सिंह शाईल पर चढ़े हैं, कैयक स्थान पर चढ़े हैं. कैयक हाथिनि पर कैयक तुरंगनि पर चढे हैं नानाप्रकारके विद्यामई तथा सामान्य वाहन तिनपर चढे चले, नृत्यकारिणी नृत्य करें हैं नट भाट अनेक कला अनेक चेष्टा करे है अति सुन्दर नृत्य होय है बंदीजन विरद बखाने हैं ऊंचे स्वरसे स्तुति करे हैं अर शरदकी पूर्णमासी के चन्द्रमा समान उज्वल छत्रनिके मंडल कर अंबर छाय रहा है नाना प्रकारके आयुधनिकी कांति कर सूर्य की किरण दब गई है, नगरके सकल नर नारी रूप कमलनिके वनको आनन्द उपजावते भानु समान श्रीराम विभीषणके घर आए । गौतमस्वामी कहे हैं-हे श्रेषिक! ता समयकी विभूति कही न जाय, महा शुभ लक्षण जैसी देवनिक शोभा होय तैसी भई । विभीषण ने अर्धपाय किये, अति शोभा करी। श्रीशांतिनाथ के मन्दिर ते लय अपने महिलतक महा मनोग्य तांडव किये । आप श्रीराम हाथीसे उतर सीता भर लक्ष्मण सहित विभीषण के घरमें प्रवेश करते भये, विभीषणके महिलके मध्य पमप्रभु जिनेंद्रका मन्दिर रत्नके तोरणनिकर मंडित कनकमई ताके चौगिर्द अनेक मन्दिर जैसे पर्वतनिके मध्य सुमेरु सोहै तैसे पायका मन्दिर सोहै। सुवर्णके हजारा थम्भ तिनके उपर अतिऊंचे देदीप्यमान अति विस्तार संयुक्त जिन मन्दिर सोहैं, नानाप्रकारके मणि निके समूह करमंडित अनेक रचनाको धरे अतिसुन्दर पराग मणिमई पमप्रमु जिनेंद्रकी प्रतिमा अति अनुपमा विराजाकी कांतिकर मणिनिकी भूमिमें मानों कमलनिका वन फूल रहे हैं। सोरामलक्ष्मण सीतासहित बंदना कर स्तुतिकर यथायोग्य निष्ठे॥
अथानन्तर विद्याधरनिकी स्त्री राम लक्ष्मण मीताके स्नानकी तयारी करावती भई. अनेक प्रकारके सुगन्ध-तेलः तिनके उबटन किये, नासिकाको सुगन्ध पर देहकू अनुकूल पूर्व दिशाको मुखकर स्नान की चौकी पर विराजे, बडी ऋद्धिकर स्मानको प्रवरते सुवर्ण के मस्कत भषिके हीरानिक स्फटिक मभिके इन्द्रनीलमणिके कलश सांध जलके भरे तिनकर स्नान मया, नानाप्रकारके वादित्र बाजे, गीत गान भए, जब स्नानम्होय चुभा तब महापवित्र वस्त्र श्राभूषण' पहिरे बहरि पद्मप्रभुके चैत्यालय जाय यन्दना करी। विभीषणने रामकी मिजमानी करी ताका विस्तार कहां लग कहिए, दुग्ध दही घी शर्वत की बावडी भरवाई पकान अर अमके पर्वत किए अर जे अद्भुत वस्तु नन्दनादि वन विष पाइये ते मंगाई मनको आनन्दकारी नसिकाको सुगंध नेत्रोंको प्रिय अति स्वादको थरे जिहाको बनभ-पट रससहित भोजनकी तैशारी करी, सामग्री तो सर्व सुन्दर ही हुती पर सीताके मिलापकर रामको अति प्रिय लगी रामके चितकी प्रसन्नता कथनमें न मावै । जब इष्टका संयोग होय तब पांचों इंद्रियनिक सर्वही भोगप्यारे'लमें नातर नाहीं, अब अपने प्रीतमका संयोग होय सक भोजन भली भांति रुः सुगंधकचे संदरवस्त्रका
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