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________________ अस्सीवां पर्ण अथानन्तर सीताके मिलापरूप सूर्यके उदय कर फूल गया है मुख जिनका ऐसे जो राम सो अपने हाथ कर सीताका हाथ गह उठे, ऐरावत गज समान जो गज ता पर सीतासहित आरोहण किया। मेघ समान वह गज ताकी पीठपर जानकी रूप रोहिणीकर युक्त रामरूप चन्द्रमा सोहते भए समाथान रूप है बुद्धि जिनकी, दोउ अतिप्रीतिके भरे, प्राणीयोंके समूहको प्रामन्दके करता बडे २ अनुरागी, विद्याधर लार लक्ष्मण लार स्वर्ग विमान तुल्य रावणका महल यहां श्रीराम पधारे । रावणके महिलके मध्य श्रीशांतिनाथका मंदिर अति सुन्दर तहां स्वर्णके हजारों यंभ नानाप्रकारके रत्नोंकर मंडित मन्दिरकी मनोहर भीति जैसे महाविदेहके मध्य सुमेरु गिर सोहै तैसें रावण के मन्दिर विषै श्रीशांतिनाथ का मन्दिर सोहै जाकों देख नेत्र मोहित होय जाय, जहां घंटा बाजे है ध्वजा फहरे हैं, महा मनोहर वह शांतिनाथ का मन्दिर वर्णनमें न आवै। श्रीराम हाथीसे उपर नागेंद्र समान है पराक्रम जिनका, प्रसन्में हैं नेत्र जिनके महालक्ष्मीवान जानकीसहित किंचित्काल कायोत्सर्गको प्रतिज्ञा करी, प्रलंबित हैं भुजा जिनकी महा प्रशांत हृदय सामायिकको अंगीकार कर हाथ जोड शांविनाथस्वामीका स्तोत्र समस्त अशुभ कर्मका नाशक पढते भए-हे प्रभो ! तिहारे गर्भावतारमें सर्वलोकमें शांति भई महा कांतिकी करणहारी सर्वरोग हरमहारी पर सकल जीवनको आनंद उपजे कर तिहारे जन्मकन्याणमें इंद्रादिक देव महा हर्षित होय पाए हीर सागरके जल कर सुमेरु पर्वत पर तिहारा जन्मभिषेक भया अर तुमने चक्रवर्ती पद पर जगत्का राज्य किया वायशत्रु वाह्यचक्रसे जीते भर मुनि-होय · माहिले मोह रागादिक शत्रु ध्यानकर जीते केवलबोष लहा, जन्म जरा मरणसे रहित जो शिवपुर कहिए मोक्ष ताका तुम अविनाशी राज्य किया, कर्म रूप वैरी ज्ञान शस्त्रसे निराकरण किए। कैसे हैं कर्म शत्रु सदा भवभ्रमणके कारण पर जन्म जरा मरण भयरूप आयुधनिकर युक्त सदा शिवपुर पंथके निरोथक । कैसा है शिवपुर १ उपमारहित नित्य शुद्ध जहां परभावका आश्रय नाही, केवल निजभावका आधय है अत्यन्त दुर्लभ सो तुम आप निर्वाणपद सुलम करो हो, सब जगतको शांतिके कारण हो। हे श्रीशांतिनाथ ! मन वचन काय कर नमस्कार तुमको, हे महेश ! अत्यन्तशांत दिशाको प्राप्त भए हो, स्थावर जंगम सर्वजीवोंके नाथ हो जो तिहारे शरण पावै ताके रक्षक हो, समाथि बोथके देनहारे तुम एक परमेश्वर सवनके गुरु सबके बांधव हो मोक्ष मार्गके प्ररूपणहारे सर्व इंद्रादिक देवनिकर पूज्य धर्मतीर्थके कर्ता हो, तिहारे प्रसाद कर सर्व दुखसे रहित जो परम स्थानक ताहि मुनिराज पावे हैं । देवाधिदेव नमस्कार है तमको सर्व कर्म विलय किया है । हे कृतकृत्य ! नमस्कार " तुमको, पाया है परम शांतिपद जिन्होंने, तीनलोकको शांतिके कारण सकल स्थावर जंगम जीवोंके नाथ, शरणागतपालक समाथि बोधके दाता महा कांतिके धारक हो। हे प्रभो ! तुमही मुरु तुमही वांधव तुमही मोक्षमार्गके नियंता परमेश्वर इंद्रादिक देवनिकर पूज्य धर्म तार्थके कर्ता जिनकर भव्य जीवनिको मुख होय सर्व दुखके हरणहारे कर्मोंके अन्तक नमस्कार तुमको, हे लब्धलम्य ! नमस्कार तुमको लब्धलभ्य कहिये पाया है पायवे योग्य पद जिन्ह ने, महाशांत स्वभावमें विराजमान सर्वदोषरहित हे भगवान! कपा करो वह प्रखंड अविनाशी पद हमें देवो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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