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________________ पद्म-पुराण ४५२ तिकर मुद्रित होय हैं अर याके नेत्रकमल मुखचद्रमाकी ज्योतिकर प्रकाशरूप हैं । कलषतारहित उमत हैं स्तन जाके मानों कामके कलश ही हैं, सरल है चित्त जाका, सो कौशल्याका पुत्र राणी विदेहाकी पुत्रीको निकट श्रावनी देख कथनविष न पावे ऐसे हर्षको प्राप्त भया, पर यह रतिसमान सुन्दरी रमण को आवता देख विनयकर हाथ जोड खडी अश्रुपातकर मरे हैं नेत्र जाके जैसे शची इन्द्र के निकट आवै, रति कामके निकट प्रावै, दया जिनधर्मके निकट मात्र, सुभद्रा भरतके निकट आवै, तैसे ही सीता सती रामके समीप आई सो घने दिननिका वियोग ताकर खेदखिन रामने मनोरथके सैकडोंकर पाया है नवीन संगम जाने सो महाज्योतिका धरणहारा सजल हैं नेत्र जाके भुज बनकर शोभित जे भुजा तिनकर प्राणप्रियासे मिलता भया । ताहि उरसे लगाय सुखके सागरमें मग्न भया, उरसे जुदी न कर सके मानों विरहसे डरै है अर वह निर्मल चित्तकी धरणहारी प्रीतम के कंठविणे अपनी भुत्र पासि डारि ऐसी सोहती भई जैसे कल्पवृक्षनिसे लिपटी कल्पवेलि सोहै, भया है रोमांच दोनोंके अंगमें परस्पर मिलापकर दोऊ ही अति सोहते भये । ते देवनिके युगल समान हैं जैसे देव देवांगना सो है तैसे सोहते भये । सीता अर रामका समागम देख देव प्रसन्न भये प्राकाशसे दोनोंपर पुष्पोंकी वर्षा करते भये सुगन्ध जलकी वर्षा करते भये अर ऐसे वचन मुखतै उचारते भए-अहो अनुपम है शील सीताका, शुभ है चित्त सीता धन्य है याकी अचलता गम्भीरता धन्य है व्रत शीलकी म. नोग्यता धन्य है निर्मलपन जाका धन्य है सदिनिविष उत्कृष्टता है जाकै, जाने मनहूकर द्विनीय पुरुष न इच्छा, शुद्ध है नियम व्रत जाका या भांति देवनि प्रशंसा करी ताही समय अति भक्तिका भरा लक्ष्मण आय सीताके पायन पडा विनयकर संयुक्त, सीता अश्रपात डारती ताहि उरसों लगाय कहती भई-हे वत्स ! महाज्ञानी मुनि कहते हुते जो यह वासुदेव पदका धारक है सो तू प्रगट भया अर अर्थचक्रो पदका राज तेरे आया निग्रंथ के वचन अन्यथा न होंय पर यह तेरे बडे माई बलदेव पुरुषोत्तम जिन्होंने विरहरूप अग्निमें जरती जो मैं सो निकासी । बहुरि चंद्रमा समान है ज्योति जाकी ऐसा भाई भामएल बहिनके समीप पाया ताहि देख अतिमोहकर मिली । कैसा है भाई ? महाविनयवान् है अर रणमें भला दिखाया है पराक्रम जाने, सुग्रीव हनुमान नल अंगद विराथित चंद्र सुषेण जांबव इत्यादि बडे बडे विद्याधर अपना २ नाम सुनाय बंदना अर स्तुति करते भये, नाना प्रकारके वस्त्र आभूषण कल्पवृक्षोंके पुष्पनिकी माला सीताके चरणके समीप स्वर्णके पात्रमें मेल भेट करते भए अर स्तुति करते भए--हे देवि ! तुम तीन लोकविष प्रसिद्ध हो महा उदारताको धरो हो गुण सम्पदाकर सबनिमें बडी हो देवोंकर स्तुति करने योग्य हो अर मंगल रूप है दर्शन तिहारा, जैसे सूर्यकी प्रभा सूर्यसहित प्रकाश करै तैसे तुम श्रीरामचन्द्र सहित जयवन्त होहु। इति श्रीरनिषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा गचनिकागि राम र सीताका मिलाप वर्णन करनेगाला उन्नासीवां पर्व पूर्श भया ॥७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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